Friday, 20 December 2013

अपने मूव को पहचानिए



वैसे तो अपने अन्तिम मैच के दिनों सचिन तेंदुलकर टी.वी. के हर चैनल पर छाए हुए थे लेकिन रिमोट पर मेरा हाथ उस प्रोग्राम पर रुक गया जहाँ वे बच्चों से क्रिकेट और जीवन के बारे में बात कर रहे थे। एक बच्चे ने उनसे पूछा कि क्या आप अपने पुराने मैच देखते है? उन्होंने कहा, 'देखता हूँ लेकिन अपनी कमियों के साथ और उससे कहीं अधिक ध्यान अपनी अच्छाईयों पर देता हूँ। ये मुझे अगले मैच के लिए आत्म-विश्वास और नए जोश से भर देती है।'

कोई महान् पैदा नहीं होता; व्यक्ति कि सोच, व्यक्ति का दृष्टिकोण उसे महान् बनाता है। अपनी अच्छाइयों पर ध्यान दो, उन्हें अपनी शक्ति बनाओ, ये कोई सचिन ही कह सकता है। कहाँ हम सब बचपन से यही सुनते आये है कि अपना सारा ध्यान अपनी गलतियों पर लगाओ, इन्हें दूर करके ही तुम बेहतर प्रदर्शन कर पाओगे। किसी ने ये नहीं सोचा कि सारे दिन अपनी कमियों के बारे में ही सोचते रहेंगे तो हमारे आत्म-विश्वास का क्या होगा? क्या कमजोर आत्म-विश्वास से कभी किसी ने बड़ी सफलता पाई है? निश्चित ही हमें अपनी कमियों को पकड़ना चाहिए, उन पर मेहनत करनी चाहिए कि कोई उन रास्तों से हमें भेद न सके, कोई छोटी सी चूक हमारे किए कराए पर पानी न फेर दे, लेकिन एक बात ध्यान रखिए कि कमियों पर तो काबू ही पाया जा सकता है जबकि अच्छाईयाँ हमारी शक्ति बन सकती है।

सच तो यह है कि कमी या अच्छाई जैसी कोई चीज होती ही नहीं, सारी कि सारी व्यक्ति कि विशेषताएँ होती है। जादूगर प्रकृति प्रत्येक व्यक्ति को भिन्न मिश्रण देती है, यही कारण है कि हम मूलतः एक होते हुए भी अभिव्यक्ति के स्तर पर अलग-अलग है। कोई दूसरे जैसा नहीं, सभी अद्वितीय। हर व्यक्ति में कोई न कोई ख़ास बात होती है और अगर ऐसा है तो मान के चलिए कोई कम ख़ास भी होगी। हम यहाँ सबको अपनी ख़ास बात बताने आए है न कि उसे भूलकर बाकी बातों में उलझने। बाकी बातों को काबू में करना होता है जिससे हमारी ख़ास बातें उभरकर सामने आ सके। सचिन की बात का यही तो मतलब था लेकिन कितनी बड़ी बात कितनी आसानी और सहजता से उन्होंने कही कि एक बच्चे को भी समझ आ जाए। 


आपसे ये सब बात करते हुए मुझे याद आ रही है हल्की-फुल्की कॉमेडी फ़िल्म 'चाँदनी चौक टू चाइना' फ़िल्म में ढाबे पर काम करने वाला हीरो किसी तरह चीन पहुँच जाता है जहाँ स्थितियाँ कुछ ऐसी बनती है कि उसे वहाँ के श्रेष्ठ कुंग फू मास्टर से मुकाबला करना होता है। यही फ़िल्म का विलेन है। फ़िल्म का हीरो एक गुरु ढूँढता है और अत्यंत कठिन प्रशिक्षण से भी गुजरता है, इसके बावजूद मुकाबले के समय वह किसी तरह भी विलेन को काबू में नहीं कर पाता, तब घेरे से बाहर खड़े उसके गुरु यही कहते है, 'सिद्धू याद कर अपना वो मूव जो सिर्फ तेरे पास है'। उसे याद आता है कि ढाबे पर वह ढेर सारे आटे को किस तरह उठा-उठाकर लगाता था। थोड़ी देर ही बाद वो विलन उसे लगाया हुआ आटा नजर आने लगता है और वह उसके साथ वही कर रहा होता है जो उस आटे के साथ किया करता था। 

चित्रण निश्चित ही कॉमिक था लेकिन बात कितनी मार्मिक। हम सब में कोई न कोई 'मूव' है। कितना ही कुछ सीख लें, सीखा हुआ हमें रिंग में बनाए रख सकता है लेकिन जीत हमें हमारा अपना मूव ही दिलाएगा। जरुरत है अपने मूव को पहचानने की, उसे तराशने की, फिर जिन्दगी कि परिस्थितियाँ चाहे कैसी हों, वे हमारे बाँये हाथ का खेल होंगी। 


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 15 दिसम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ............  

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