और बिज्जी नहीं रहे ............। बिज्जी यानि श्री विजयदान देथा। राजस्थानी के शीर्षस्थ लेखक। आप शायद उन्हें फ़िल्म 'पहेली' के नाम से जल्दी जान पाएँ। अमोल पालेकर निर्देशित और शाहरुख़ खान अभिनीत इस सुन्दर फ़िल्म के कहानीकार वे ही थे। मिट्टी की सौंधी खुश्बू लिए उनकी सारी कहानियाँ इतनी ही सुन्दर और अनूठी है।
उनकी 'सपन-प्रिया'से तो ऐसा मोह हुआ कि हिंदी में अनुदित लगभग सारा साहित्य ही पढ़ना पड़ा। उन्हें पढ़ना शुरू करने के बाद अपने को रोक पाना शायद ही किसी के लिए सम्भव हो। ऐसा लगता है मानो आपका बचपन लौट आया हो और आप अपने दादा-नाना कि गोदी में बैठकर कहानी सुन रहे हों। बिज्जी की शुरुआत का तो शायद ही दूसरा कोई सानी हो जैसे कोई बात को लोक-जीवन की पहली तह से समेटना शुरू करे।
तो बात तक़रीबन दस साल पहले कि होगी। मैं अपनी बिटिया के साथ उस दूकान पर था जहाँ से बिज्जी कि किताबें प्रकाशित होती थी। वह तब 5 या 6 वर्ष की रही होगी। मैं उससे अलग-अलग किताबों और उनके लेखकों के बारे में बात कर रहा था। हम देखते-देखते उस रैक तक पहुँचे जहां बिज्जी कि किताबें रखी हुई थी। उन्ही दिनों मैंने 'सपन-प्रिया'पढ़ी थी। मैं अपनी बिटिया को उनके बारे में बताने लगा। मैं उनका प्रशंसक हो चला था इसलिए शायद कुछ ज्यादा ही विस्तार से बता रहा था। एक सज्जन जो काफी देर से हमें देख रहे थे, हमारे पास आए। उन्होंने मुझे शाबासी दी कि मैं अपनी बिटिया को किताबों के बारे में बता रहा हूँ। उन्होंने बताया कि वे बिज्जी के मित्र है, वे जोधपुर विश्वविद्यालय के प्रो. भारद्वाज थे। उन्होंने मुझे बिज्जी के टेलीफोन नम्बर दिए और कहा कि मैं उनसे अवश्य बात करूँ, उन्हें भी अच्छा लगेगा।
और मैं, मैं सोचता ही रह गया। इन पिछले वर्षों में कई बार सोचा, टेलीफोन डायरी हाथ में भी उठायी पर हर बार यह सोचकर रख दी कि जिस दिन कुछ लिखूँगा उस दिन बात भी करूँगा और अपना लिखा भी दिखाऊँगा। पिछले दो वर्षों से लिख रहा हूँ और इस स्तम्भ के जरिए आपसे हर सप्ताह रुबरु भी हूँ पर क्या मालूम यही लगता रहा कि अभी वैसा और वैसे थोड़े ही लिख पाया हूँ जो उन्हें दिखाने काबिल हो। मुझे आज भी नहीं मालूम कि मैं वैसा लिख पाता हूँ या नहीं पर इतना जरुर है कि जब से ये खबर आयी है मन पछतावे से भरा है, अपने आपको कोस रहा हूँ। काश ! .......
अब पछतावे का भार कुछ हल्का हुआ है तो एक बात पक्के तौर पर गाँठ बाँध ली है कि आइंदा कभी ऐसी गलती नहीं करूँगा। जो बात हमें इतनी शिद्दत से महसूस हो कि उसे करना चाहिए या न करना चाहिए को लेकर मन में जरा भी सन्देह न हो वही तो हमारा होना है, हमारी अन्तरात्मा की आवाज और अपनी अन्तरात्मा की आवाज को दबाना तो निश्चित ही किसी गुनाह से कम नहीं। अब ऐसा कर हम पछतावे को नहीं तो किसे बुलावा दे रहे होते है। स्थगन यदि योजना का हिस्सा है तो और बात है अन्यथा दूसरे सारे तर्क बेवजह है, गलत है। स्थितियाँ कभी बिल्कुल ठीक नहीं होती, हमारे कदम उन्हें ठीक बनाते चले जाते है। मैं तो बिज्जी को अपनी भावभीनी श्रद्धांजलि देते हुए यही सलाह दूँगा कि अपनी ऐसी किसी इच्छा को एक पल के लिए भी स्थगित मत कीजिए जिसकी जन्मभूमि आपकी अन्तरात्मा हो, आपको जीवन में कभी पछतावे का मुँह नहीं देखना पड़ेगा। मेरी तो यही सीख उन्हें मेरी श्रद्धांजलि होगी।
(दैनिक नवज्योति में रविवार, 24 नवम्बर को प्रकाशित)
आपका,
राहुल ............
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