अभी मैं जो पुस्तक पढ़ रहा हूँ ये सचमुच नई दृष्टि देनी वाली है। डॉ. अभय बंग की लिखित 'ह्रदय रोग से मुक्ति'। नाम से तो ऐसा ही लगेगा जैसे हर दूसरी किताब की तरह ये भी कोई नुस्खे बताने वाली किताब ही है, बशर्ते कि आप श्री अभय बंग को नहीं जानते हों। महाराष्ट्र के गढ़ चिरौली आदिवासी इलाके में डॉ. अभय पिछले करीब 28 सालों से काम कर रहे हैं। एम.डी. के बाद आगे पढ़ने वे जॉन हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी, अमेरिका चले गए, समय-समय पर उनके रिसर्च-पेपर अलग-अलग मेडिकल जर्नल्स में छपते रहे हैं। 44 वर्ष की उम्र में एक दिन अचानक उन्हें हार्ट-अटैक आ गया। वैसे ये किसी को भी कह कर नहीं आता, पर सभी को लगता ऐसे ही है। बात जीवन-मरण की थी और वो भी एक शोधार्थी के सामने। उन्होंने अपनी ही शोध शुरू कर दी।
अगले तीन सालों तक उनका जीवन ही उनकी प्रयोगशाला रहा और वे बीमारी को काबू में ही नहीं पलटने में भी कामयाब हुए। ये उसी सफर की आत्म-कथा है। पहले दो अध्यायों में तो उनकी पड़ताल शरीर के स्तर पर होती है पर तीसरे अध्याय से वे मन को खंगालने लगते हैं। आप चौंक उठते हैं, ऐसा लगता है जैसे आपके मन की परतें भी साथ में उधड़ रही हैं। एक जगह आकर वे लिखते हैं कभी ईश्वर होने या उसके कैसे होने की मैं कल्पना करता तो वैसी ही कर पाता जैसा मैंने बचपन से पौराणिक कथा-कहानियों में सुना था। बादलों के पार बड़े से सिंहासन पर बैठा सोने के मुकुट-आभूषणों और रेशमी वस्त्र पहने कोई दिव्य पुरुष। पर साथ ही लगता, ऐसा कैसे हो सकता है? और दूसरे ही पल सँस्कार इस पर सोचने से मना करने लगते। पर अब तो वे शोध कर रहे थे।
एक दिन उनके हाथ लगी गाँधी जी की आत्म-कथा, 'सत्य के साथ प्रयोग।' पढ़ी उन्होंने विद्यार्थी-जीवन में भी थी पर अब दृष्टि दूसरी थी। उसमें एक जगह गाँधी जी कहते हैं, 'सत्य ही ईश्वर है।' बस, यही वो तथ्य था जिसने उनकी शोध के इस हिस्से को मुकाम तक पहुँचाया।
हम सब ये तो सुनते-पढ़ते बड़े हुए हैं कि 'ईश्वर ही सत्य है' पर वे तो कह रहे थे, 'सत्य ही ईश्वर है'। बात तो ठीक थी, यदि ईश्वर सत्य है तो सत्य ही ईश्वर है पर शब्दों के इस फेर से आगे रोशनी दिखने लगी थी। ईश्वर को हम खोज पाएँ न खोज पाएँ, या खोजा भी जा सकता हो या नहीं लेकिन 'सत्य' को तो ढूँढा ही जा सकता है। और यदि वही ईश्वर है तब तो इसका मतलब हुआ कि ईश्वर को भी ढूँढा जा सकता है। तो 'सत्य' क्या है? ......... अरे! प्रश्न को मुश्किल क्यूँ बनाना? जो है वही तो सत्य है, हमारे चारों तरफ बिखरा पड़ा। ये पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, आप-मैं, यहाँ तक कि एक चींटी भी, और यही ईश्वर है। ऐसा समझते ही एक बात और सतह पर आयी और वो यह कि जो है वो तो इसी क्षण में है। अतः 'जो है' उससे जुड़ना है तो इसी क्षण में रहना होगा। इसी क्षण में रहना युक्ति है तो इसी क्षण में बिखरा सौन्दर्य 'ईश्वर'। शायद इसी सौन्दर्य को बखानने हमारे पूर्वजों ने उस 'दिव्य-पुरुष' की कल्पना की होगी।
तो, जो मैं समझा,
वो यह कि यदि ईश्वर ही हमारा उद्धार करते हैं तो वे तो इसी क्षण में हैं। यानि न तो जो था और न ही जो होगा उससे हमारा कुछ हो सकता है। हमारा कुछ हो सकता है तो बस, इस क्षण में जो है उसी से। इस तरह तो 'जो है' उसे स्वीकारना 'ईश्वर-दर्शन' ही हुआ और उससे आगे बढ़ने प्रयास 'ईश्वर-भक्ति'। बात बस इतनी सरल-सीधी है और हम हैं कि न जाने कहाँ-कहाँ उलझे हुए हैं।
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