'परिवार, परम्पराएँ और परिवर्तन', यही विषय था जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल के उस सेशन का, वक्ता थीं मृदुला सिन्हा और अल्का सरावगी। बातों ही बातों में एक बात पर अल्का जी ने कहा, 'मेरी दादी मेरी माँ से कहीं ज्यादा खुले विचारों की थी।' अरे! हाँ, मैं सोचने लगा, बात छोटी सी थी पर मैं स्वयं भी तो पिछले कई सालों से कुछ ऐसा ही महसूस कर रहा था जिसे आज शायद बस शब्द मिल गए थे। क्या आपको नहीं लगता, हम जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं ज्यादा परम्परावादी होते जा रहे हैं। रीती-रिवाजों को संस्कृति के नाम पर धर्म समझने लगे है। सीधे कहूँ तो, रहन-सहन से तो मॉडर्न और विचारों से दकियानूस। क्यों होते जा रहे हैं हम इतने दकियानूस?
क्या आजादी के बाद से अस्सी के दशक तक की पीढ़ी जन्मपत्री, मांगलिक-दोष, वास्तु में इतना ही विश्वास करती थी? मुझे नहीं लगता। त्योहारों को ही ले लीजिए, उनके पीछे की बात और उसे मनाना तो जैसे कहीं पीछे छूट गया है और हम विधियों में उलझ कर रह गए हैं। मैं नहीं कहता कि ये फिजूल हैं। है, इनका भी विज्ञान है लेकिन मैं निश्चित हूँ कि हमारी वो वजह नहीं। तो साफ है, इन सब के पीछे वजह है डर, और कुछ नहीं। तो हम इतने डरे हुए क्यूँ है? पहले से आज हमारे जीवन में सुविधाएँ भी बढ़ी है और रहन-सहन का स्तर भी। क्या जब हम शुरू हुए थे तब हमने सोचा था कि किसी दिन इतना सब हमारे पास होगा? नहीं ना, तब तो फिर हमारा डर कम होना चाहिए था, पर ये तो बढ़ा। क्यूँ हुआ ऐसा?
ये विश्लेषण मेरा है पर मैं अल्का जी के निष्कर्ष से सहमत था, हम भले ही अच्छी रफ्तार से आगे बढे लेकिन समय में परिवर्तन उससे कहीं तेज हुआ और हम चाह कर भी उससे ताल नहीं मिला पाए। इसमें हमारी गलती थी भी नहीं पर इसने हमें असुरक्षा की भावना से भर दिया। परिवर्तन की नदी के तेज बहाव में अपने आपको बचाए रखने के लिए हमने परम्पराओं की टहनी पकड़ ली। हम चाहेंगे ही कि हमारे बच्चे सुरक्षित खुश रहें, हमारे परिवार में कभी धन-धान्य की कमी न हो, हम सब खुश रहें पर वक्त इतना तेजी से बदला कि हम डर गए और हमने इसका जवाब जन्मपत्री, वास्तु और दूसरे कर्मकाण्डों में ढूँढ लिया।
बात वहाँ इतनी ही होकर रह गयी थी, पर ये तो पूरी नहीं थी। घर आकर मैं सोचने लगा, आखिर आप और मैं करें क्या? या सिर्फ ऐसा होते हुए देखते रहें, अपनी जिन्दगी यूँ ही डर में गुजार दें। मैं वापस सोचने लगा, परिवर्तन-ताल-असुरक्षा, और तब अचानक एक छूटी कड़ी दिखाई देने लगी। वो थी, क्या हर होने वाला परिवर्तन हमारे लिए है? प्रश्न के स्पष्ट होते ही जवाब जैसे तैयार था,- नहीं, हर परिवर्तन हमारे लिए नहीं; और फिर तो जैसे दरवाजे खुलते चले गए।
और जो मैं समझा,
वो ये था कि हमारी दुनिया हम बनाएँगे। कितना बदलना है ये हम तय करेंगे न कि बाजार या हमारे संगी-साथी। जो उपलब्ध है उसे अपनाना जरुरी नहीं जब तक कि वो आपके जीवन को बेहतर न बनाता हो। हर व्यक्ति के जीने का अपना तरीका है। कोई और जो चुनता है ये उसके जीवन की जरुरत होगी। ऐसा करने से परिवर्तन का अनावश्यक दबाव कम होगा। चीजें नियंत्रण में होगीं तो अपने आप पर विश्वास लौटेगा। न बहने का खतरा होगा न टहनी को पकड़ने की जरुरत।
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