कबीर ने गुरु की महिमा को कुछ इस तरह गाया है,-
गुरु गोविन्द दोउ खडे, काके लागूँ पाय
बलिहारी गुरु आपने, गोविन्द दियो बताय।
सारे विश्व में चाहे वह कोई सभ्यता-संस्कृति हो, एक शिक्षक का स्थान सबसे ऊँचा है और हमारे यहाँ तो गुरु का स्थान गोविन्द यानि ईश्वर से भी पहले आता है और यही हमारे संस्कारों में है। गुरु शब्द भी तो दो शब्दों से मिलकर बना है, गु और रु। गु का अर्थ अन्धकार और रु का अर्थ प्रकाश, यानि वह जो अन्धकार से प्रकाश की ओर ले जाए।
हमारे इन्हीं संस्कारों का फायदा आजकल के तथाकथित गुरु उठा रहे हैं। आज तो जैसे गुरुओं की बाढ़ आई हुई है, जो जहाँ-तहाँ हमारी श्रद्धा को भुनाते हुए दिख जाएँगे। आप कहेंगे, मैं सही कह रहा हूँ, ज्यादातर ऐसा ही है लेकिन मेरे गुरु तो सच्चे है। देखिए आप बुरा मत मानिए, निश्चित ही ऐसा ही होगा, मैं तो बस आपके साथ यह चर्चा करना चाहता हूँ की जिन्हें हम अपने जीवन में ईश्वर से भी प्रथम स्थान देना चाहते है उन्हें पहचाने-परखें कैसे?
चलिए इस बात की तह तक एक उदाहरण के जरिए पहुँचने की कोशिश करते है। हम सभी को जब-तब डॉक्टर के यहाँ तो जाना ही पड़ता है। हमें वही डॉक्टर ठीक लगता है जो हमें ठीक तरह से देखें, उचित दवाई दे और जल्दी से पूरा ठीक कर दे। यों कह लें, डॉक्टर वह अच्छा जो पहले दिन से चाहे कि हमें उसकी जरुरत न रहे। आप बिल्कुल ठीक समझ रहे है, मैं क्या कहना चाहता हूँ। गुरु भी वही अच्छा जो अपने शिष्य के जीवन से अपनी जरुरत मिटाता चला जाए। हमें सक्षम बनाए, हमें रास्ता दिखाए, - प्रकाश की ओर। ऐसे गुरु कैसे सच्चे हो सकते है जो ये चाहे कि हम जीवन का एक पग भी उनके सहारे के बिना न धर सकें। आशीर्वाद होना अलग बात है और आश्रित होना अलग।
मेरे जेहन में जो उभर कर आ रहे हैं, वे हैं स्वामी रामकृष्ण परमहंस। उन्होंने कभी नरेन यानि स्वामी विवेकानन्द को अपनी बात मानने से मजबूर नहीं किया। नरेन् पूछते चले गए, वे बताते चले गए और एक दिन बोले; "नरेन! मैं तो रीता हो गया रे।" यानि अब मेरे पास और बताने को कुछ नहीं, अब आगे का रास्ता तुझे स्वयं करना है। उन्होंने वही किया। सच है, रामकृष्ण परमहंस गुरु हों तब ही नरेन के लिए स्वामी विवेकानन्द बनना सम्भव होता है। गुरु वो जो हमें मुक्त करें न कि वो जकड़े रखे।
आप इसलिए तो परेशान नहीं कि आपका तो कोई गुरु ही नहीं। ये परेशानी इसलिए क्योंकि हम गुरु को सिर्फ एक व्यक्ति के रूप में देखते है। गुरु कोई भी हो सकता है; एक किताब, एक रिश्ता या एक संयोग ही क्यूँ नहीं। बेहतर है हम गुरु ढूंढने की बजाय शिष्य बनने की तैयारी में लग जाएँ। यदि हम सीखने को तैयार है तो सिखाने वाला मिल जाएगा और यदि हम जानने को तैयार है तो बताने वाला भी मिल जाएगा। जरुरत है अन्धकार के प्रति मन में कोफ़्त पैदा करने की, प्रकाश का रास्ता कोई दिखा ही देगा। एक पुरानी कहावत है, 'यदि शिष्य तैयार है तो गुरु स्वतः मिलेगें।
( दैनिक नवज्योति में रविवार, 7 जुलाई को प्रकाशित)
आपका,
राहुल .........
Again PERFECT!
ReplyDeleteGuru vohi jo mukt kare, free rakhe, allow carey, comfortable carey na ki apni YOJANAON, DHARANAON mein baandhey rakhey.
To be honest I learn from every 1 I come across & learn even through my imaginations.... all r my gurus.
Perfect topic, superbly stated & very nicely explained Rahul dada.
In fact flawlessly written.
Maza aaya...
GOD BLESS U DEAR!