Friday, 28 June 2013

क्षमा वीरस्य भूषणम



एक सुन्दर पंक्ति जो बचपन से हमारे संस्कारों में है, क्षमा वीरस्य भूषणम यानि क्षमा वीरों का आभूषण है। इसका अर्थ हम निकालते आए हैं कि क्षमा करने वाला वीर होता है। इसी अर्थ ने क्षमा को बदनाम कर रखा है। क्षमा को उच्चतम आदर्श और सुंदरतम भाव मानते हुए भी अंतस में कहीं न कहीं हम इसे कायरता और अकर्मण्यता से जोड़ कर देखते है। इस विरोधाभास की वजह यह अर्थ है जो कहता है, क्षमा करने वाला वीर होता है। क्षमा वीरस्य भूषणम का सही अर्थ है, क्षमा उसे ही शोभा देती है जो वीर है। आपका वीर होना आपको क्षमा कर सकने के लायक बनाता है। यदि आप प्रतिरोध इसलिए नहीं करते क्योंकि आप प्रतिरोध कर ही नहीं सकते तो यह कायरता है लेकिन चूँकि आप प्रेम को जीवन का आधार मानते है इसलिए प्रतिरोध नहीं करते, तो यह क्षमा है।

क्षमाशील होने की आवश्यक शर्त है, वीरता। वीर होने से यहाँ आशय युद्ध-कौशल से नहीं अपितु कर्मशीलता से है। सीधे शब्दों में वीर वह है जिसका अपने काम पर पूरा नियंत्रण है। अपने काम पर नियंत्रण आपको अपने जीवन पर नियंत्रण देता है और तब किसी बात का विरोध करना या न करना आपकी इच्छा का विषय हो जाता है। आपका काम कुछ भी हो सकता है, व्यवसाय, सेवा या फिर तपस्या ही क्यूँ नहीं? स्वामी विवेकानन्द ने इसे कर्मयोग कहा है। अपने कर्मों का कुशल प्रबन्धन। वे कहते है व्यक्ति के कर्म उसका चरित्र बनाते है और व्यक्ति का सुदृढ चरित्र उसे वीर बनाता है। इसका मतलब यह हुआ कि व्यक्ति को अपने कर्मों से प्रतिरोध कर सकने की वो क्षमता हासिल करने की कोशिश करनी चाहिए जहां आकर प्रतिरोध करना अनावश्यक जान पड़े या वो अपने प्रतिरोध को नियंत्रित कर सके। ये बिल्कुल वैसे ही है जैसे एक भिखारी को भूखे रहने से उपवास का फल नहीं मिलता क्योंकि भूखा रहना उसकी मज़बूरी है इच्छा नहीं, इसी तरह जो व्यक्ति प्रतिरोध कर ही नहीं सकता वह क्षमा करने से सद्चरित्र या महान नहीं हो जाता। क्षमा का गहना तो कर्मशीलता की घोर अग्नि में तपकर बनता है।

क्षमा अकर्मण्यता या कायरता की झोली में न जा गिरे इसके लिए 'क्षमा की सीमा'भी उतनी ही जरुरी है। महाभारत का शिशुपाल वध तो आपको याद ही होगा। शिशुपाल श्री कृष्ण का भान्जा था और दुर्योधन का मित्र लेकिन वचनों का बड़ा दरिद्र। एक बार उसने अपने कटु वचनों से कृष्ण का इतना अपमान किया कि उन्होंने अपना सुदर्शन-चक्र उठा ही लिया था किन्तु ऐन वक्त पर बहन बीच में आकर खड़ी हो गई। वे करबद्ध होकर शिशुपाल की ओर से क्षमा-याचना करने लगीं। वे रिश्तों की दुहाई दे रही थी तब द्रवित हो, कृष्ण ने अपनी बहन को वचन दिया कि वे शिशुपाल की सौ गलतियों को माफ़ करेंगे। इसके बाद भी उसे अपनी गलतियों का अहसास नहीं हुआ तो इसका परिणाम भुगतना होगा।

आखिर वो समय भी आ ही गया जब शिशुपाल ने क्षमा की सीमा को भी लांघ दिया। अब श्री कृष्ण के पास सुदर्शन-चक्र चलाने के सिवाय चारा ही क्या था? इसी तरह हमें भी यह ध्यान रखना जरूरी है कि कहीं क्षमा हमारी कमज़ोरी न बन जाए। यही चूक पृथ्वीराज चौहान से हुई थी जो मोहम्मद गजनी को माफ़ करते चले गए। उन्होंने गजनी को सोलह बार माफ़ किया और इसका खामियाज़ा उन्हें और पूरे राष्ट्र को भुगतना पडा।

कर्म से बड़ी कोई शक्ति नहीं। तो आइए, जीवन में अपने कर्मों को साधें, एक दिन स्वतः ही अपने आपको इस मुकाम पर खड़ा पाएँगे जहां प्रतिरोध पर हमारा नियंत्रण होगा। सही मायनों में क्षमा व्यक्ति के कर्मशील होने की अंतिम उपलब्धि है। शायद इसीलिए श्री कृष्ण बार-बार अर्जुन से यही  है, - उठ, युद्ध कर।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 23 जून को प्रकाशित)
आपका 
राहुल ............  


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