Friday, 14 September 2012

कामयाबी से गलबहियाँ




एक व्यक्ति ने अपने पिता के कातिल को ढूंढ़कर बदला लेना अपना जीवन लक्ष्य बना रखा था. कई सालों तक उसका पीछा कर आख़िरकार उसने अपना बदला पूरा कर ही लिया. वापस लौटते हुए वह हतप्रभ सा चारों दिशाओं में देख रहा था. उसका दिमाग जैसे कुंद हो गया था. उसे बिल्कुल समझ नहीं आ रहा था कि वो किधर लौटे? अब जब उसका लक्ष्य पूरा हो गया तो वह जीवन में किधर बढे? कहीं ऐसा तो नहीं कि हम सभी अपनी जीवन यात्रा में इतने खो जाते है, ढूंढने में इतने तल्लीन हो जाते है कि जब हमें वह मिल जाती है तब न तो ये मालूम होता है कि इसका क्या करें और न ही ये मालूम होता है कि इसके बाद क्या करें?

एक पथिक को चलते रहने की ऐसी आदत सी पड जाती है, उसी में इतना आनंद आता है कि वो अनजाने ही सही, पहुंचना ही नहीं चाहता. यात्रा की तो पूरी जानकारी होती है लेकिन मंजिल अनजानी होती है. हम भी उस पथिक की ही तरह पा लेने की दौड़ के इतने अभ्यस्त हो चुके है कि स्वयं ही स्वयं को उससे दूर रखे है जो हम पा लेना चाहते है. अनावश्यक प्रयास करते रहना हमारी जीवन-शैली बन गई है जो हमें गलतियाँ करते रहने और अपने काम के प्रति लापरवाह रहने की छूट देती है. निश्चित रूप से ऐसा जीवन हमें सुरक्षा का आभास देता है और इसीलिए हम अपने सुरक्षा घेरे (कम्फर्ट जोन) से बाहर निकलना ही नहीं चाहते. यहाँ तक कि हम अपना परिचय, रिश्ते, मूल्य और जीवन-संबल भी सुरक्षा घेरे के इस दायरे में ही बुन लेते है. 

सच तो यह है कि हमें खुद नहीं मालूम होता कि इस सुरक्षा की हम क्या कीमत चुका रहे होते है. यह होती है मन का खालीपन, कमतरी की भावना, परिस्थितियों की मज़बूरी और प्रेम-विहीन जीवन जबकि इससे बाहर निकल 'पा लेने' का अहसास हमें अपनी तरह जीने का आत्म-विश्वास तो देगा ही साथ ही हमारा जीवन सुख-शांति-स्वास्थ्य और प्रेम से खिल उठेगा.

वास्तव में ये हमारे मन का डर ही है जो हमें अपनी कामयाबी को गले लगाने से रोकता है. कामयाबी जो खुशियों के साथ जिम्मेवारी भी लाती है. यदि आप किसी चीज के प्रति जिम्मेवार है इसका मतलब है उससे सम्बंधित निर्णय आप ही को लेने है. निर्णय चाहे कितने ही विवेक से क्यूँ न लिए जाएँ उनके सही या गलत होने की सम्भावना बराबर बनी रहती है. अहम् भला हमें उस दिशा में क्यूँ जाने देना चाहेगा जहाँ हमारे गलत हो जाने का जरा सा भी अंदेशा हो.  हकीकत तो यह है कि हम अपनी जिम्मेवारियों से भाग रहे होते है. अहम् कि ये ही कारस्तानियाँ हमें कामयाबी को स्वीकारने से रोकती है.

इसे यों देखें जैसे कोई भी अच्छा विद्यार्थी यही चाहेगा कि शिक्षा ग्रहण के बाद उसकी गिनती अपने विषय के श्रेष्ठ ज्ञाताओं में हो. यही उचित है और यही प्रेरणा भी लेकिन यह भी उतना ही सही है कि दीक्षित (ग्रेज्यूएट) होना शिक्षा का एक आवश्यक एवम महत्वपूर्ण पड़ाव है. पाठ्यक्रम की सम्पूर्ण जानकारी दीक्षित होने की शर्त कभी नहीं हो सकती. ठीक उसी तरह जैसे एक शिक्षक को अपने विषय की सम्पूर्ण जानकारी नहीं हो सकती लेकिन एक मुकाम पर आकर उसे स्वीकार करना पड़ता है कि उसका अर्जित ज्ञान दूसरों में बाँटने के लिए पर्याप्त है. यह हमारी ग़लतफ़हमी है कि  संतुष्टि का यह भाव एक दीक्षित या शिक्षक को आगे ज्ञानार्जन से रोक देगा. संतुष्टि ठहराव नहीं आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास की आधारशिला है. यह हमें मजबूती से आगे बढ़ने की ऊर्जा देती है. 

निस्संदेह यात्रा का भी उतना ही महत्व है जितना मंजिल का. जिसने यात्रा का आनंद नहीं लिया वह मंजिल पर पहुँच कर भी खाली ही रहेगा लेकिन इसके साथ यह भी उतना ही सत्य है कि कोई भी यात्रा मंजिल के लिए होती है और होनी चाहिए. यदि रास्ते का आनन्द आपको जीवन भर पथिक बनाए रखता है तो आपने यात्रा के मूल भाव को ही कहीं बिसरा दिया है. एक बात हमेशा याद रखनी होगी कि ठहराव कभी ख़ुश्बू नहीं दे सकता. 


( दैनिक नवज्योति - रविवारीय में 9 सितम्बर को प्रकाशित)  
आपका 
राहुल...... 



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