Friday, 31 August 2012

कुछ करते रहने के लिए कुछ न करें




" एक जगह बिना कुछ किए, निशचल न बैठ पाना ही हमारी बदहाली की वजह है. "
                                                                                            --- पास्कल 

पास्कल, जिनका हाइड्रोलिक्स और ज्योमेट्री के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान है, जिन्हें पहला डिजिटल केलकुलेटर बनाने का श्रेय प्राप्त है और जिनका 'दबाव का सिद्धांत' आज भी विज्ञानं की कक्षाओं में पढाया जाता है. ऐसे महान दार्शनिक, वैज्ञानिक, और गणितज्ञ ऐसी  बात कहते है तो बैचेनी-सी होती है, जहाँ हमारा परम्परागत आचरण तो कुछ करते रहने का है. यही हमें सदियों से सिखाया जाता रहा है कि कुछ न करना कायरता और समय कि बर्बादी है. समय जो लौटकर नहीं आता. ठीक भी लगता है कि कुछ करेंगे तब ही तो कुछ होगा. जीवन में सफल होना है तो लगातार कोशिशें करनी होगी. फिर पास्कल जैसे अभूतपूर्व विचारक ने ऐसा क्यूँ कहा?

एक मिनट ठिठक कर अपने आस-पास और फिर अपने ही जीवन पर नज़र डालें तो साफ़ दिखेगा कि हमारी जिन्दगी एक दौड़ बन कर रह गई है. कुछ करते रहने की हमारी ऐसी आदत पड गई है कि ज्यादातर समय हमें ये ही मालूम नहीं होता कि जो कुछ हम कर रहे है वो आखिर क्यूँ कर रहे है. विश्वास मानिए, जाना कहीं नहीं फिर भी जल्दी हमें कहीं नहीं पहुंचाएगी. कोई भी बात हो छोटी या बड़ी हम उसके होने देने का इंतज़ार कर ही नहीं पाते. अवचेतन में यह बात इतनी गहरी पैठी है कि यदि हम कुछ नहीं कर रहे है तो परिणाम की ओर नहीं बढ़ रहे है.

ऐसा नहीं है, वास्तव में हम अपने आप से भाग रहे होते है. सदियों से कुछ प्रभावशाली लोग समाज को अपने तरीके और फायदे के लिए अपनाना चाहते है. इन लोगों ने समाज-व्यवस्था के नाम पर ऐसे संस्कार डाल दिए है कि हम अपने प्रत्येक कर्म एवम कर्म फल को पाप-पुण्य,अच्छा-बुरा,    और सही-गलत के तराजू में रख देखने लगे है. अपने पर अविश्वास कर आशंकित रहते है, कुछ अप्रिय न घट जाए इसलिए डरे रहते है और बीते दिनों कि सारी अनचाही स्थितियों व दुखों के लिए अपराध-बोध से ग्रसित रहते है. इस तरह हमने जीवन का हर क्षण डर, आशंका और अपराध-बोध से भर लिया है जिनसे बचने के लिए हम भाग रहे है और बहाना है कुछ करते रहने का.

इसका मतलब है पास्कल कर्म के जन्म का प्रश्न उठा रहे है न कि कर्महीन होने की शिक्षा दे रहे है. जिस तरह एक कुत्ते का बच्चा कुत्ता और एक बिल्ली का बच्चा बिल्ली ही होगा उसी तरह डर, आशंका, और अपराध-बोध से उपजे कर्म ऐसे ही कर्म-फल लौटाएँगे. यदि हमें अपने जीवन से सुख, शांति और समृद्धि की अभिलाषा है तो हमारे कर्म आनंद और उद्देश्य से प्रेरित हों. ये ही प्रभावी और फलदायी होंगे. आनंद और उद्देश्य हमारे कर्म की प्रेरणा बनें इसके लिए किसी काम को 'करना' आना से जरुरी है स्वयं का 'होना' आना. 'होना' यानि स्वयं की मूल प्रकृति में स्थिर होना. हमारी मूल प्रकृति है विशुद्ध प्रेम जहाँ व्यक्ति का मन शांत और मस्तिष्क स्पष्ट होता है. निशचल भाव से वही व्यक्ति बैठ सकता है जिसके मन में शांति और मस्तिष्क में स्पष्टता हो. महान विचारक पास्कल ने शायद हमें अपने शब्दों में यही समझाने की कोशिश की है.

आनंदमय और उद्देश्यपूर्ण जीवन में भी मुश्किलें-परेशानियाँ आएँगी तो ऐसे क्षण भी जो हमसे निर्णय चाहते है. समस्या चाहे कोई हो, कारण होता है हमारी एक निश्चित सोच, एक तय नजरिया. जीवन की इन घड़ियों में मन बैचेन और सोच का भ्रमित होना स्वाभाविक है. ऐसे समय कुछ देर के लिए कुछ न करना ही उत्तम है. पहले अपने नजरिये को विस्तार दें. चीजों के दूसरे पहलुओं को देखने की कोशिश करें. जीवन के ऐसे विषय जो हमसे हल चाहते है के साथ जिएँ, उन्हें अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ. इस तरह जब मन-मस्तिष्क समभाव में आ जाए तब कर्म की ओर उद्दृत हों. निश्चित ही हमारे निर्णय कहीं बेहतर और हल स्वाभाविक होंगे. मुझे याद आती है अल्बर्ट आइन्स्टाइन की सारगर्भित पंक्ति " समस्याएँ चेतना के उसी स्तर पर हल नहीं हो सकती जिसकी वजह उनका जन्म हुआ है ". मैं बस इतना जोड़ देना चाहता हूँ ' तब तक ठहरना अच्छा'.


( रविवार, २६ अगस्त को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल......   

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