एक यात्री घूमते-घूमते किसी नगर के द्वार पर पहुँचा. उसने द्वारपाल से पूछा, ' ये नगर कैसा है ?' द्वारपाल ने उलटा सवाल किया, ' जहाँ से तुम आए हो वो नगर कैसा था ?' यात्री ने कहा, ' उसकी तो तुम बात ही मत करो. झगडालू लोग, चारों तरफ गंदगी और ढंग का कोई काम-धंधा नहीं. ये सुनकर द्वारपाल बोला,' अरे ! भाई ये नगर भी बहुत कुछ ऐसा ही है. अब और क्या कहूँ मैं तुमको.' ऐसा सुनते ही वह यात्री तो आगे चलता बना. कुछ दिनों बाद एक दूसरा यात्री नगर के द्वार पर पहुँचा. उसने भी वही सवाल किया. द्वारपाल ने भी वापस उससे उसके पुराने नगर के बारे मैं पूछा. संयोग से यह व्यक्ति भी उसी नगर से था जहाँ से पहला यात्री आया था लेकिन इसका जवाब था, ' क्या बताऊँ दोस्त मैं तो अपने नगर को छोड़ना ही नहीं चाहता था. कुछ निजी मजबूरियाँ हो गई वरना वहाँ के लोगों में तो इतना भाई-चारा, नगर में सफाई-व्यवस्था, और सब के लिए कुछ न कुछ काम था. द्वारपाल बोला, ये नगर भी वैसा ही है भाई. आओ! तुम्हारा स्वागत है.
ठीक ही तो है, हमें वही तो मिलेगा जो हम ढूंढ़ रहे है और रही बात प्रकृति की तो वह हर हालत में हमारा ही साथ देगी. यदि हम असंतुष्ट है यानि हमारा सारा ध्यान जीवन में जो कुछ नहीं मिला पर लगा है तो प्रकृति भी हमारे साथ मिलकर कोशिश करेगी की हमारा जीवन अभावों में गुजरे क्योंकि यही तो हम ढूंढ़ रहे थे. इसी पर तो हमारी दृष्टी थी. यदि हम संतुष्ट है तो प्रकृति भी ध्यान रखेगी कि जीवन में कुछ भी ऐसा न हो जो हमें असंतुष्ट कर दे. संतुष्टि तो एक भाव है अब यह हमारी इच्छा है कि हम इसे स्वाभाव बनते है या नहीं.
संतुष्टि कुछ हासिल कर लेने में नहीं वरन ' जो कुछ है वह पर्याप्त है ' की सोच से मिलती है लेकिन इसका आशय यह नहीं लगाना चाहिए की संतुष्टि का भाव हमें जीवन में आगे बढ़ने से रोकता है. संतुष्टि का भाव तो उलटा हमारी रचनात्मकता के पंख लगा देता है. अब हम कुछ भी करने या न करने का चुनाव संतुष्टि के दबाव में नहीं करते. यह अहसास कि कोई भी बहरी वस्तु हमें संतुष्ट नहीं कर सकती, हमारे निर्णयों को मुक्त कर देती है. इस तरह हम जीवन में अपने आपको कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण व सार्थक प्रयोजनों से जोड़ भी पाते है और उन्हें बेहतर तरीके से अंजाम भी दे पाते है. निश्चित रूप से इस तरह हमें पहले से कहीं बेहतर परिणाम मिलते है. अब परिणाम हमारी अभिव्यक्ति और परिचय होते है जो हमारे लिए वृहत्तर प्रयोजनों से जुड़ने कि प्रेरणा बनते है.
क्वांटम फिजिक्स भी कहती है कि कोई भी प्रयोग कभी शत-प्रतिशत निरपेक्ष हो ही नहीं सकता क्योंकि प्रयोगकर्ता की उपस्थिति मात्र प्रयोग को प्रभावित करती है. ठीक इसी तरह हमारा जीवन भी निरपेक्ष नहीं होता क्योंकि प्राणी-मात्र की चेतना जीवन के रसायन को प्रभावित कर अनुभवों को बदल देती है. जीवन की एक सी परिस्थितियों में भी अलग-अलग व्यक्ति को अलग-अलग अनुभव होते है. यदि जीवन के अनुभवों को अधिक सुखद और मीठा बनाना है तो वह सिर्फ और सिर्फ अपनी चेतना के स्तर को उठाकर ही संभव है.
एक दिन के लिए एक छोटा-सा अभ्यास आजमाएँ. तय करें की आज का दिन मैं, " मैं ठीक हूँ, मेरे पास पर्याप्त है " की सोच के साथ गुजारूँगा. सुबह पहले जब अपना चेहरा शीशे में देखें तो शीशे में दिख रहे व्यक्ति को पसंद करें. देखकर मुस्कुराएँ. जिस किसी से मिलें तो तय करें कि आपका ध्यान उनकी खूबियों पर रहेगा. आपका काम वही है जो आप जीवन में करना चाहते थे और आपके ग्राहक और संगी-साथी आपकी सफलता के हेतु है.
विश्वास मानिए एक दिन के अनुभव ही आपके जीवन को बदल कर रख देंगे. आप अच्छा महसूस करने लगेंगे और चीजें स्वतः ही आपके पक्ष में घटने लगेंगी. आपको अहसास होने लगेगा कि आपकेपास पर्याप्त नहीं, उससे भी कहीं ज्यादा है.
( रविवार, ५ अगस्त को नवज्योति में ' स्वाभाव बना लें संतुष्टि को ' शीर्षक के साथ प्रकाशित )
आपका,
राहुल....
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