Friday, 17 August 2012

थोडा भरोसा रखिए






" तुलसी भरोसे राम के, निर्भय हो के सोय !
  अनहोनी  होनी  नहीं, होनी  हो  सो  होय !! "

कुछ दिनों पहले मैं फिल्म ' अखियों के झरोखों से ' के गाने सुन रहा था. फिल्म में एक सुंदर अन्ताक्षरी है जिसमें कबीर, रहीम और तुलसी के दोहे है. मेरा ध्यान तुलसी के इस दोहे पर अटक गया और कई दिनों तक अटका ही रहा. मैं मन ही मन गुणने लगा कि तुलसीदास जी ने जीवन की सारी परेशानियों का निदान इन दो पंक्तियों में ही कर दिया है.

जीवन में कुछ परिस्थितियाँ ऐसी होती है जिन पर हमारा नियंत्रण होता है और कुछ पर बिल्कुल नहीं. जिन स्थितियों पर हमारा नियंत्रण होता है वहाँ तो हम बेहतर विकल्पों का चुनाव कर परिणामों को बदल सकते है लेकिन जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं वहाँ प्रकृति और परमात्मा के भरोसे रहना ही समझदारी है.

यहाँ मैं आपको भाग्यवादी बनने को बिल्कुल प्रेरित नहीं कर रहा बल्कि याद दिला रहा हूँ कि कुछ स्थितियाँ ऐसी होती है जिनमें खुद हमें मालूम नहीं होता कि हमारा भला किसमें है. आप अपने जीवन के ही बीते दिन याद आएगी जो उस समय तो नाकामी लगी थी पर बाद में वे ही सफलता की नींव का पत्थर साबित हुई.

जब हमें मालूम ही नहीं कि हमारा भला किसमें है तो फिर किसी निश्चित परिणाम के लिए प्रार्थना करना बिल्कुल बेमानी है. गुरु रामदास कहते है कि यदि आपको पक्का मालूम है कि आप जो कुछ माँग रहे है वे आपको और आपके अपनों को किस तरह प्रभावित करेंगे तो निश्चित परिणामों के लिए प्रार्थना सर्वथा उचित है लेकिन विसंगति यह है कि हम में से किसी को नहीं मालूम कि जो हम माँग रहे है उसके सम्पूर्ण प्रभाव क्या होंगे. 

हमारी प्रार्थना जीवन के उन्नत और सम्रद्ध अनुभवों के लिए हों. हम ईश्वर से अपने भले कि कामना करें लेकिन हमारा भला किसमें है यह निर्णय उसी पर छोड़ दें. मुझे याद आती है वह बात जब बचपन में मैं पिताजी के साथ मंदिर जाया करता था. मुझे लगता था कि हम मंदिर जाते ही कुछ माँगने को है. एक दिन मैंने उनसे पूछा कि मैं भगवान से क्या माँगू? पिताजी का जबाव था बेटा! कुछ माँगना ही है तो अपने लिए सदबुद्धि माँगो. आज इसकी गहराई समझ आती है. आप ही बताइए सदबुद्धि माँग ली तो बाकी क्या रह गया? 

रही बात परेशानियों की तो ये किसके जीवन में नहीं आती. ये आती है कुछ सिखाने, कुछ याद दिलाने. इन्हें टालने या दबाने की बजाय यदि हम इनमें से गुजर इनके छिपे संकेतों को समझ अपने जीवन की गाड़ी को दुरुस्त कर लें तो ये स्वतः ही गायब हो जाएंगी. जीवन मैं दुःख अवश्यम्भावी हो सकते है लेकिन उसे पीड़ा बनाना ऐच्छिक होता है. परेशानियों और दुखों का प्रतिरोध उन्हें पीड़ा मैं बदल देता है. पीड़ा या व्यथा यानि दुखों कि स्वीकार्यता में ही उनका निदान छिपा है.

जीवन कि ज्यादातर परेशानियों कि वजह यह होती है कि हमने अपने अवचेतन में जीवन का एक प्रारूप (मॉडल) बना रखा है. हम पहले ही से तय कर बैठे है कि हमारे लिए क्या ठीक है और क्या नहीं. जब भी जीवन में ऐसा कुछ होता है जो इससे मेल नहीं खाता, हम परेशान हो उठते है. हमारे ये पूर्वाग्रह ही हमारी ज्यादातर उलझनों और उद्विग्नताओं के कारण होते है. जीवन के रंगमंच पर हमें सिर्फ अपने किरदार कि जानकारी है पूरा परिदृश्य तो सिर्फ निर्देशक को पता है जिसे आप चाहें तो प्रकृति कह लें चाहें परमात्मा. किसी ने ठीक ही कहा है, " यदि आप ईश्वर को हँसाना चाहते है तो और कुछ करने कि जरुरत नहीं बस उसे अपनी योजनाएँ सुना दीजिए. 

( रविवार, १२ अगस्त को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका 
राहुल.....

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