एक अच्छा नर्तक वही है जो संगीत की लय-ताल के साथ अपना तारतम्य बिठा लें. जब संगीत साज की बजाय उसके पैरों और भाव-भंगिमाओं से फूटता जान पड़े. जीवन जीने की कला भी यही है जब व्यक्ति अपने जीवन की लय के साथ अपनी कदम-ताल मिलाएं, जीवन धारा के साथ एकरूप हो जाए.
जीवन-धारा के साथ बहने का मतलब यह कतई नहीं है की हम समाज द्वारा निर्धारित परम्पराओं, मान्यताओं और रुढियों को ज्यों का त्यों अपना लें या हम क्या करें यह किसी और के जीवन से उधार ले लें. जीवन-धारा के साथ एकरूप होने का यह मतलब भी नहीं है की हम निष्क्रिय हो, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता को छोड़ लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाएँ. अपना जीवन वसे जिएँ जैसा लोग हमसे चाहते है. जीवन-धारा में बहने का मतलब तो है वह करना जो इस क्षण में हमारी समझ से सबसे ज्यादा उपयुक्त है.
हम सब एक सामान्य शिकायत जिसने मुझे आपसे इस विषय पर बात करने के लिए प्रेरित किया कि ' यदि मैं परिस्थितियों के हाथों मजबूर नहीं होता तो इससे कहीं बेहतर होता.' सबसे पहले तो हम जीवन की अधिकांशतः परिस्थितियों के लिए स्वयं जिम्मेदार होते है और दूसरा हमारा अहम् जो हमारे साहसी नहीं होने को परिस्थितियों के गले मढ़ देता है.
हाँ, जीवन मैं कुछ परिस्थतियाँ ऐसी भी होती है जिनके लिए न तो हम जिम्मेदार होते है न ही वे हमारे नियंत्रण मैं होती है.ऐसे समय मैं हो सकता है हमारे लिए वैसा करना ज्यादा ठीक हो जैसा हम साधारण परिस्थितियों में नहीं करते. यही है अपने कर्तव्यों का निर्वहन. मेरे निजी अनुभवों ने यह बात समझाई है की ये परिस्थितियाँ वो संकेत है जिस दिशा मैं प्रकृति हमें ले जाना चाहती है. हमें एक दृश्य का ज्ञान है तो प्रकृति को पूरी पटकथा का. निःसंदेह प्रकृति के इशारे हमारी बुद्धि से ज्यादा भरोसे लायक होते है. हमें भरोसा रखना चाहिए की यदि ऐसा है भी तो प्रकृति ने हमारे लिए हमसे ज्यादा अच्छा सोच रक्खा होगा और इस तरह कर्त्तव्य बोध हमारी इच्छाओं की उपज होगी न की मज़बूरी की. कर्तव्यों को जब हम मजबूरन निभाते है तो जीवन एक बोझ बन जाता है और मज़बूरी समझकर लाख ढंग से निभाए कर्त्तव्य भी जीवन-परिस्थितियों को हमारे अनुकूल नहीं बना पाते. इसी कारण हमें अपनी जीवन-परिस्थितियों से हमेशा शिकायत रहती है. सच्चा कर्त्तव्य वही है जिसे करने को हमारा अंतस भी कहें और बुद्धि भी सही ठहराएँ.
भाग्य और पुरुषार्थ के इस द्वन्द को डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने अपनी पुस्तक भगवदगीता के परिचय में बिलकुल ठीक समझाया है, " जीवन, ताश का एक खेल है. न तो हमने इसका अविष्कार किया न ही इसके नियम बनाये. पत्तों के बंटवारे पर भी हमारा कोई नियंत्रण नहीं चाहे वे अच्छे है या बुरे. भाग्य का शासन बस यहीं तक है. आगे हम पर है की हम कैसे खेलें. हो सकता है एक कुशल खिलाड़ी खराब पत्तों के बावजूद जीत जाएँ और एक अनाडी अच्छे पत्तों के साथ भी खेल का नाश कर दें." यही है पुरुषार्थ. वे आगे लिखते है, " अपने चुनाव का समुचित प्रयोग करते हुए हम धीरे-धीरे सभी तत्वों पर नियंत्रण कर प्रकृति के नियतिवाद को समाप्त कर सकते है."
आइए, जीवन-धारा के साथ बह प्रकृति से एकरूप हो जाएँ. जीवन-संगीत पर थिरकें और जीवन उत्सव का आनंद उठाये.
( रविवार, 20 मई को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका,
राहुल.....
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