Saturday, 12 May 2012

क्रोध को ख़त्म नहीं काबू में करें



हमारी भावनाएँ हमारी आत्मिक भूख को पोषित करती है. जिस तरह खाना, पीना, सोना हमारी शारीरिक और सोचना हमारी बौद्धिक भूख है उसी तरह भावनामय होना हमारी आत्मिक जरुरत है. वो व्यक्ति ही क्या जिसे भूखे को देख दया, घायल को देख करुणा, बच्चों को देख प्रेम, प्रकृति को देख आनंद - आश्चर्य न आये. आध्यात्मिक होने का मतलब भावनाशून्य होना कतई नहीं है.

भावनाओं के समुद्र में डुबकी लगाने से पहले तैरना सिखाना बहुत जरुरी है वरना डूबने का डर है. भावनाओं में बह हम अपने जीवन की लय - ताल बिगाड़ लेते है. भावनाओं का अतिरेक हमेशा ही विनाश का कारण बना है चाहे वह ध्रतराष्ट्र का पुत्र- प्रेम हो या हिटलर की घ्रणा. भावनाओं का अतिरेक उत्तेजना पैदा कर हमारे कर्मों को अपने अधीन कर लेता है और तब बुद्धि हमारा साथ छोड़ देती है. यदि अपनों को बीमार देख हम खुद ही रोने बैठ जायेंगे तो उनकी सेवा कैसे कर पायेंगे. करुणा का भाव हमें सेवा के लिए उद्धत करें वहाँ तक सुंदर है लेकिन इससे आगे यह हमें ही अपाहिज बना देगा.

क्रोध सबसे तीव्रतम भाव है. जीवन में क्रोध पर काबू पा लेने से बड़ी कोई विजय नहीं हो सकती. इसके लिए सबसे पहले तो यह जानना जरुरी है की क्रोध आता ही क्यूँ है? हम बारीकी से पड़ताल करें तो पायेंगे की जब किसी का व्यवहार हमारा मनचाहा नहीं होता तो हमें क्रोध दिलाता है. हम सब जानते है पर मानते नहीं या भूल बैठते है की जिस तरह हमें अपने जीवन को अपने तरीके से जीने का अधिकार है किसी और को भी है. दूसरों की स्वतंत्रता के सम्मान में ही हमारी स्वतंत्रता निहित है. सम्मान रिश्तों की क्यारी में खाद - पानी का कम करता है. रिश्ते यदि बनते भावनाओं से है तो उन्हें उम्र मिलती है आपसी सम्मान से. एक दुसरे को सम्पूर्णता के साथ स्वीकार करना ही सम्मान करना है. हमारी यही समझ हमें ऐसे समय में विचलित होने से बचाती है जब स्थितियां मन के अनुकूल न हों.

इस सारी समझ के बावजूद भी जीवन में कई मौकों पर व्यक्ति अहम् के अधीन हो क्रोध कर ही बैठता है. सबसे जटिल प्रश्न तो यह है की यदि व्यक्ति को क्रोध आ ही जाएँ तब वो क्या करें? कुछ लोगों का मानना है की क्रोध को व्यक्त कर देने से मन साफ़ हो जाता है लेकिन ऐसे समय हम यह भूल जाते है की ऐसा करना हमारे रिश्तों में कडवाहट भर देगा. हम अपने अपने घर को साफ़ रखने के लिए पडोसी के घर के सामने कचरा नहीं फेंक सकते. ऐसे समय तो हम दूसरों के उन गुणों पर अपना ध्यान ले जाने की कोशिश करें जिनके कारण हम उन्हें अपना मानते है. उन व्यवहारों को याद करें जिनसे हमें जीवन में कभी संबल मिला था. क्रोध को इस तरह काबू कर हम सार्थक संवाद की स्थिति में आ पाएंगे. हमारा स्वर और शब्दों पर नियंत्रण रहेगा. स्पष्ट लेकिन आहत न करने वाले स्वर और शब्दों में व्यक्त की गई अपनी असहमति और नाराजगी हमारे रिश्तों को और मजबूत बनाएगी.

क्रोध का आना नहीं वरन उसका बेकाबू हो जाना गलत है. क्रोध यदि काबू में रहे तो इससे बड़ी कोई रचनात्मक शक्ति नहीं हो सकती. ट्रेन के डिब्बे से बाहर निकल फेंकने पर आया गाँधी जी का क्रोध ही था जिसने देश को आज़ादी दिलाई. धनानंद के अपमानजनक व्यवहार के प्रति चाणक्य का क्रोध ही था जो देश को एक सूत्र में पिरोने की प्रेरणा - शक्ति बना. क्रोध को घटना नहीं वरन घटना के पीछे के कारणों के विरुद्ध इस्तेमाल किया जाना चाहिए.

इसी तरह सारी भावनाएँ हमारे जीवन की चाशनी होती है. इन्ही से हमारे जीवन में रस भी है और मिठास भी; लेकिन ध्यान रहें बावनाओं का अतिरेक जीवन को उसी तरह दुखदायी बना देता है जिस तरह चीनी की अधिकता चाशनी को कड़वा बना देती है.

(दैनिक नवज्योति में रविवार, 6 मई को 'भावनाओं का अतिरेक-विनाश का कारण' शीर्षक के साथ प्रकाशित)

आपका 
राहुल.

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