रेत को हम जितनी जोर से मुट्ठी में पकड़ने की कोशिश करते है उतनी ही तेजी से वह फिसलने लगती है.यह बात जीवन के हर पहलू पर ज्यों की त्यों लागू होती है चाहे बीता कल हो, रिश्ते हो या हमारी सांसारिक उपलब्धियाँ. हम अपनी सुखद स्मृतियों को इस क्षण में जीना चाहते है, रिश्तों को मजबूत बनाने के लिए कोशिश करने लगते है की दूसरे हमारे हिसाब से जिएँ और जीवन में जो कुछ हम हासिल कर पाए उसे बनाये रखने को जीवन जीने का आधार बना लेते है. होता ठीक इसका उलट है; इस तरह हम रिश्तों में घुटन भर लेते है, अपनी स्वाभाविक रचनात्मकता का गला घोंट देते है और इस क्षण को खोकर तो जीवन ही को खो देते है.
हम ऐसा क्यूँ करने लगते है ?
आपने महसूस किया होगा हम हर छोटी - बड़ी बात पर उन दिनों का हवाला देते है जब हम सोचते है की सब कुछ ठीक था. यह और कुछ नहीं हमारी प्रवृति है. कुछ सालों बाद हम 'आज' को भी इसीलिए याद करेंगे. यह प्रवृति है बीते हुए कल में रहने की. हमें वे सुखद स्मृतियाँ इसलिए कचोटती है की सब कुछ ठीक था लेकिन हम उन दिनों को उनकी सम्पूर्णता से नहीं जी पाए, उनका भरपूर आनंद नहीं ले पाए. यह अफ़सोस ही उन दिनों को जिन्दा रखता है और हम उन क्षणों को आज में जीने की कोशिश करने लगते है. कल को आज में तो कोई नहीं जी पाया. हाँ, इतना जरुर है की इस चक्कर में हम आज को भी खो देते है.
यह भी सही है की किसी व्यक्ति के लिए जीवन के हर क्षण को उसकी सम्पूर्णता के साथ जीना संभव नहीं. हमारा यह सारा अभ्यास वहाँ तक पहुँचने भर तक का है. हमें यह मानना होगा की उन दिनों हमने वही किया जितनी हमारी समझ थी. उससे अलग या अच्छा कर पाना हमारे लिए संभव ही नहीं था इसलिए किसी भी प्रकार के अफ़सोस का कोई स्थान नहीं. यही स्पष्टता हमें इस क्षण को भरपूर जीने का उत्साह देगी.
यही गलती हम अपने रिश्तों में भी कर बैठते है. जब रिश्तों में होते है तब एक दूसरे को अपनी ही तरह ढालने की कोशिश में लगे रहते है लेकिन जब रिश्तों की उम्र हो जाती है तब उन्हें पूरी तरह नहीं जी पाने की कसक लिए उन्हें याद करते है. जीवन की सच्ची ख़ुशी इसी में है की हम रिश्तों का आनंद तब लें जब उनमें हों. हम एक-दूसरे को अपनी-अपनी जगह दें. रिश्ते होते ही इसलिए है की एक दूसरे को अपने-अपने तरीके से जीने और अभिव्यक्त करने में सहायता कर सकें.
रही बात सांसारिक उपलब्धियों की तो इन्हें बनाए रखने की जुगत हमें नया कुछ कुछ भी करने से रोकती है. कुछ नया करना यानि जोखिम उठाना यानि जो कुछ है उसके खोने का डर. इस तरह हम खुद ही अपने को जीवन में और अधिक सफलताओं और ऊचाईयों को छूने से रोक लेते है.
जीवन की यही उलटबांसी जो सैंट फ्रांसिस की विश्व - प्रसिद्द प्रार्थना की एक पंक्ति है, " देने में ही पाना है ". हम जिसका जितना मोह छोड़ेंगे उतना ज्यादा उसे अपने जीवन में पायेंगे.
स्मृतियों का सुखद अहसास, रिश्तों में प्रेम की इच्छा या काम में सफलता की इच्छा रखना गलत नहीं है वरन इच्छाओं से आसक्त होना गलत है.' कर्म कर, फल की इच्छा मत रख ' कह कर हम गीता को गलत उद्धृत करते है. गीता तो कहती है, ' कर्म कर,फल की इच्छा भी रख लेकिन इच्छा से आसक्ति मत रख.' अरे! कर्म-फल की इच्छा तो कर्म की प्रेरणा-शक्ति है लेकिन फल की आसक्ति हमारी समझ पर पर्दा डाल हमारा पथ-भ्रष्ट कर देती है. हम येन-केन-प्रकारेण अपनी इच्छाओं की पूर्ति में लग अपने ही जीवन में जहर घोल देते है. कर्म-फल पर अपना अधिकार छोड़ना ही उसे पाना है, यही कृष्ण का निष्काम कर्म है.
आसक्ति से विरक्ति ही कर्म को सुकर्म बना जीवन के हर क्षण में खुशियों के रंग भरती है.
(नवज्योति में रविवार, 13 मई को प्रकाशित )
आपका
राहुल....
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