लगे रहो......भाई
इस विषय पर बात करते हुए मुझे याद आते है मेल फिशर जिन्हें कंही से मालूम चला था कि कई सालों पहले खजाने से लदा स्पेनिश जहाज फ्लोरिडा के छोटे-छोटे द्वीपों के पास डूब गया था. उन्होंने अपने स्तर पर खोज-बीन की और जैसे-जैसे वे पता करते गए उनका विश्वास पक्का होता गया और तब उन्होंने उस जहाज को ढूँढना अपना लक्ष्य बना लिया और जुट गए. उन्होंने इस काम के लिए अपनी अरबो रुपये की जमा-पूंजी और हजारों कर्मचारी लगा दिए. मेल फिशर ने अपने गोताखोरों और कर्मचारियों की टी-शर्ट पर लिखवा रखा था 'Today's the day'. उन्होंने चौदह साल तक हर दिन 'आज ही वो दिन है' समझ कर उस जहाज को ढूंढा और आखिर एक दिन वो दिन आ ही गया और उन्हें जो मिला वो उन चौदह साल की मेहनत की तुलना में कंही ज्यादा था.
यदि मन को पक्का विश्वास हो, लक्ष्य स्पष्ट हो एवम हम कृतसंकल्प हो तो असफल होने की गुंजाईश ही नहीं बचती.
सामान्यतया जब हम कोई काम शुरू करते है तो बहुत उत्साहित होते है क्योंकि हमने उसे अपनी पसंदगी और परिणामों के आधार पर चुना होता है जो निश्चित रूप से बहुत ही लुभावने और सुनहरे होते है लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते है उस काम के लिए आवश्यक मेहनत, अनुशासन और लगन के कारण अपने उत्साह को, अपने जज्बे को कायम नहीं रख पाते. खजाना पाना है तो मेल फिशर की तरह ऐसे जुटना होगा जैसे आज ही वो दिन है.
किसी काम में सच्चे दिल से जुट जाना ही हमारी निष्ठां है और हमारी निष्ठां स्वतः ही प्रकृति की उन शक्तियों को अपनी और आकर्षित कर लेती है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करती है.
संस्कारवश हम हर काम को एक उम्र-विशेष से बाँध लेते है. यह सही है कि जीवन के अधिकतर काम एक उम्र-विशेष में ही करने में आते है लेकिन यह सिर्फ हमारी सुविधा के लिए एक व्यवस्था है. कोई भी काम उम्र के किसी दौर में किया जाए इसका न तो उसकी उचितता से लेना-देना है और न ही सफलता से. जिस प्रकार नाश्ते, सुबह के खाने और रात के खाने का एक लगभग समय होता है क्योंकि सामान्यतया उस समय हर व्यक्ति को भूख लगती है लेकिन खाने कि पहली शर्त भूख है न कि खाने का समय.
मन में पक्का विश्वास और दृढ निश्चय हो तो न समय से कोई फर्क पड़ता है न लक्ष्य कि उंचाई से; खजाना मिलता ही है. फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' का शीर्षक कितना सार्थक है; यदि लगे रहो तो गाँधी जी भी दिखने लग जाते है.
इसी विश्वास के साथ कि हमें अपना-अपना खजाना मिलें.
आपका,
राहुल....
इस विषय पर बात करते हुए मुझे याद आते है मेल फिशर जिन्हें कंही से मालूम चला था कि कई सालों पहले खजाने से लदा स्पेनिश जहाज फ्लोरिडा के छोटे-छोटे द्वीपों के पास डूब गया था. उन्होंने अपने स्तर पर खोज-बीन की और जैसे-जैसे वे पता करते गए उनका विश्वास पक्का होता गया और तब उन्होंने उस जहाज को ढूँढना अपना लक्ष्य बना लिया और जुट गए. उन्होंने इस काम के लिए अपनी अरबो रुपये की जमा-पूंजी और हजारों कर्मचारी लगा दिए. मेल फिशर ने अपने गोताखोरों और कर्मचारियों की टी-शर्ट पर लिखवा रखा था 'Today's the day'. उन्होंने चौदह साल तक हर दिन 'आज ही वो दिन है' समझ कर उस जहाज को ढूंढा और आखिर एक दिन वो दिन आ ही गया और उन्हें जो मिला वो उन चौदह साल की मेहनत की तुलना में कंही ज्यादा था.
यदि मन को पक्का विश्वास हो, लक्ष्य स्पष्ट हो एवम हम कृतसंकल्प हो तो असफल होने की गुंजाईश ही नहीं बचती.
सामान्यतया जब हम कोई काम शुरू करते है तो बहुत उत्साहित होते है क्योंकि हमने उसे अपनी पसंदगी और परिणामों के आधार पर चुना होता है जो निश्चित रूप से बहुत ही लुभावने और सुनहरे होते है लेकिन जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते है उस काम के लिए आवश्यक मेहनत, अनुशासन और लगन के कारण अपने उत्साह को, अपने जज्बे को कायम नहीं रख पाते. खजाना पाना है तो मेल फिशर की तरह ऐसे जुटना होगा जैसे आज ही वो दिन है.
किसी काम में सच्चे दिल से जुट जाना ही हमारी निष्ठां है और हमारी निष्ठां स्वतः ही प्रकृति की उन शक्तियों को अपनी और आकर्षित कर लेती है जो लक्ष्य प्राप्ति के लिए अनुकूल वातावरण का निर्माण करती है.
संस्कारवश हम हर काम को एक उम्र-विशेष से बाँध लेते है. यह सही है कि जीवन के अधिकतर काम एक उम्र-विशेष में ही करने में आते है लेकिन यह सिर्फ हमारी सुविधा के लिए एक व्यवस्था है. कोई भी काम उम्र के किसी दौर में किया जाए इसका न तो उसकी उचितता से लेना-देना है और न ही सफलता से. जिस प्रकार नाश्ते, सुबह के खाने और रात के खाने का एक लगभग समय होता है क्योंकि सामान्यतया उस समय हर व्यक्ति को भूख लगती है लेकिन खाने कि पहली शर्त भूख है न कि खाने का समय.
मन में पक्का विश्वास और दृढ निश्चय हो तो न समय से कोई फर्क पड़ता है न लक्ष्य कि उंचाई से; खजाना मिलता ही है. फिल्म 'लगे रहो मुन्नाभाई' का शीर्षक कितना सार्थक है; यदि लगे रहो तो गाँधी जी भी दिखने लग जाते है.
इसी विश्वास के साथ कि हमें अपना-अपना खजाना मिलें.
आपका,
राहुल....
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