Thursday, 21 July 2016

रफत-रफत में





मैं उन्हें डेन्टिस्ट के यहाँ ले कर गया था, हमारा आज का कोई अप्पोइंटमेंट नहीं था, कल ही तो उन्होंने केप लगवायी थी। एक तरह से ट्रीटमेन्ट कल ही खत्म हो गया था। डॉक्टर ने तो रस्मी तौर पर कहा था कि कल आप मुझे फोन पर ही बता देना कि सब कुछ ठीक ही रहा। पर रात ही से उन्हें दर्द था। उन्होंने बड़ी हिम्मत से सहन किया, कोई पेन किलर नहीं लिया जिससे वे डॉक्टर को सही स्थिति बता सकें और उसके लिए तकलीफ को जड़ से पकड़ना आसान हो। जैसे ही हमने अपनी सारी बात बताई, छूटते ही डॉक्टर ने कहा, "तो आपने पेन किलर क्यों नहीं खाई। दर्द जैसे ही बढ़ने लगे हमें दवा खा लेनी चाहिए। दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।"

डॉक्टर साहब तो रफत-रफत में अपनी बात कह गए पर मुझे काम दे गए ........ "दर्द का 'साइकल' तोड़ना बहुत जरूरी होता है, नहीं तो दर्द इकट्ठा होने लगता है और फिर पहले वह असहनीय और फिर लाईलाज हो जाता है।" एक बार तो लगा जैसे वे दाँत के दर्द की नहीं बल्कि दर्शन की बात कर रहे हैं, या फिर जीवन जीने की कला को उदाहरण के साथ समझा रहे हैं। दूसरे ही क्षण मुझे एक्हार्ट टॉल की 'द पॉवर ऑफ नॉउ' का वो कॉन्सेप्ट याद आ गया जिसमें वे लिखते हैं कि हर बार जब हमें कोई बात इतनी बुरी लगती है कि गुस्सा आने लगता है तब उस गुस्से के गुजर जाने के बाद भी उसकी कुछ बातें हमारे मन में बच जाती है। ऐसे हर बार हमारे वैसी ही किसी बात पर गुस्सा आने पर ये बची हुई बातें एक साथ इकट्ठा होने लगती हैं। इन्हें बातों की जगह शायद बारूद के कण कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। फिर किसी दिन वैसी ही किसी बात पर जब हमें गुस्सा आता है तो जैसे सारी इकट्ठा हुई बातों को चिंगारी लग जाती है। बात तो हम उस समय जो बुरा लगा उसकी ही कर रहे होते हैं लेकिन आवेश उन सारी इकट्ठा हुई बातों का होता है। जैसे कोई बम ही फट पड़ा हो, और इस तरह एक छोटी-सी बात हमारे रिश्तों को तहस-नहस कर देती है। 

और ऐसा इसलिए होता है कि हर बार गुस्सा आने पर मन में हम कुछ बचा लेते हैं। हम गुस्से का पेन किलर नहीं खाते, और इसका 'साइकल' बन जाता है और दाँत के दर्द ही तरह यह पहले असहनीय और फिर लाईलाज यानि काबू से बाहर हो जाता है। लेकिन गुस्से का पेन किलर क्या हो? निश्चित ही ये दवा सबके लिए अलग-अलग होगी क्योंकि क्रोध एक भाव है और सबकी भावनाओं की तीव्रता अलग-अलग। पर जो भी हो; चाहे कह लीजिए, समझ लीजिए, माफ कर दीजिये या किनारा कर लीजिए लेकिन गुस्से एक भी कण मन में नहीं बचना चाहिए।

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि विकार आना मानवीय शरीर और मन की कमजोरी और विशेषता है, वे आयेंगी ही लेकिन उनका कुछ भी शेष अपने पास बचा कर नहीं रखना है। हर वो सम्भव प्रयास करना है जिससे उनका चक्र न बनने पाए। यदि ऐसा हुआ जो जैसे-जैसे समय बीतेगा उनसे निजात पाना मुश्किल होता चला जाएगा। और इकट्ठा हुआ जहर तो नुकसान फैलाएगा ही इसमें क्या सन्देह है। 
सहेजना ही है तो उसके लिए खुशियाँ होती हैं, दर्द नहीं।  

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