आप को भी अपने रेल सफर में कई बार मन मोहने वाले मासूम बच्चे जरूर मिले होंगे। उनके साथ बात करते सफर कैसे बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। अपने-अपने स्टेशन पर उतरते ऐसा लगता है जैसे कोई बिल्कुल अपना बिछड़ रहा हो। ऐसा हमें ही नहीं उसे भी लग रहा होता है, शायद इसलिए कि बहुत दिनों बाद उसे भी कोई मिला होता है जो उसकी हर बात का आनन्द ले रहा होता है, बिना उसको कहे कि बेटा, ऐसे नहीं ऐसे करो या ऐसे नहीं ऐसे बैठों, और डाँट, उसका तो सवाल ही उठता। अधिक से अधिक प्यार से कुछ समझा दिया बस, इसलिए जितना प्यारा वो होता है उतने ही अच्छे अंकल हम।
अभी कुछ ही दिनों पहले में भी ऐसे ही एक रेल सफर पर था, ऐसे ही आस-पास बैठे बच्चों से बातें कर रहा था, तो न जाने कैसे मेरा ध्यान इसके आगे इस बात बात पर पहुँच गया कि क्या मेरा बच्चा अगर यही बात कर रहा होता तो क्या मैं उतनी ही तस्सली से सुनता, उसे समझाता। क्या मैं उसकी ऐसी ही कितनी सारी प्यारी-प्यारी बातों और हरकतों का इतना ही मजा ले पाता हूँ और अगर नहीं ले पाता तो नुकसान में कौन रहता है? मैं या वो। ये बात सच है कि मैं पराये बच्चे को डाँट नहीं सकता, लेकिन क्या अपने बच्चे को डाँटने से पहले एक मिनट भी ख्याल करता हूँ कि डाँटने से पहले या बजाय मैं अपनी बात को मनवाने के लिए क्या और भी कुछ कर सकता हूँ? मैं उससे और वो भी मुझसे बहुत प्यार करता है पर वो मेरे साथ इतना खुश, इतना सहज क्यों नहीं है? मेरा सर घूमने लगा था।
कोई जवाब सवाल के बाहर नहीं होता, मेरा जवाब भी वहीं छुपा था। हम जितनी अच्छी तरीके से ये बात दूसरे बच्चों के लिए समझ लेते हैं कि ये ऐसा ही है इसलिए ऐसा ही करेगा, अपने बच्चे के लिए नहीं समझ पाते। निश्चित रूप से इसके पीछे भी हमारा प्रेम ही होता है। हम सोचते हैं हम उसे वैसा बना दे जैसा एक अच्छे बच्चे को होना चाहिए, और इसका हम एक भी मौका नहीं चूकना चाहते। हम उसकी बातों, हरकतों में यही मौके ढूँढ़ते रहते है, क्योंकि हम समझते है उसे अच्छा बनाने का जो हमारा कर्तव्य है उसके लिए ये बहुत जरुरी है। हम जो बात अपने लिए जानते हैं कि व्यक्ति अपने आपको हल्का-फुल्का 'मोल्ड' कर सकता है लेकिन अपनी 'बेसिक नेचर' को नहीं बदल सकता, अपने बच्चे के लिए समझने और मानने को तैयार नहीं होते।
मैंने जब इस कड़वे प्रश्न का सामना किया तो पाया कि शायद हम यही समझते हैं कि बच्चों की कोई 'बेसिक नेचर' होती ही नहीं, ये तो उसके लालन-पालन से पड़ती है। आप ही एक मिनट के लिए उन सारी बातों को भूलाकर सोचिए जो आज तक हम कहते-सुनते आए हैं, क्या ऐसा हो सकता है? नहीं ना। सबकी एक 'बेसिक नेचर' होती है, एक स्वतन्त्र अस्तित्व और वैसे ही एक बच्चे का भी और इसे नहीं मानना ही समस्या की जड़ है। जब ये बात मेरे जेहन में साफ हुई तो लगा, ये बात बच्चों के ही नहीं हमारे अपने घर में हर रिश्ते के साथ है। हम अपने अपनों को अपने जैसा बनाने लग जाते हैं, और ऐसा हम सब करते हैं और इसीलिए बाहर हम सब सहज होते हैं लेकिन अपने घर को असहज बना लेते हैं। बात तो ठीक है, लेकिन इसे अपनायें कैसे? तो अचानक, वो अंग्रेजी में 'जेंटलमैन्स कर्टसी' कहते हैं, याद हो आया।
जो मैं समझा, वो यही एकमात्र तरीका था एक-दूसरे के साथ सहज होने का। इतना सा अदब कि हमें दूसरे के बुरे लगने का भान रहे। जितना हम परायों के साथ थोड़े से अपने होते हैं उतना ही हमें अपनों के साथ भी थोड़ा सा पराया होना होगा। एक हल्की सी दूरी हमें और पास ले आएगी। ये दूरी वही जगह देगी जो पौधों को क्यारी देती है, और तब हम ज्यादा खुश, ज्यादा सहज होंगे, उतने ही जितने हम और किसी के साथ होते हैं।
No comments:
Post a Comment