Saturday, 5 December 2015

एक दहन यह भी




वे चित्रकार बेहतरीन होते हैं जो सेल्फ पोट्रेट बना पाते हैं पर वे तो लाखों में एक ही होते होंगे जो अपने मन के भावों को भी अपने चित्र पर ला पाते हैं। इसमें बात चित्रकारी की नहीं है, भावों को उकेरना ही तो चित्रकला है और सारे ही बेहतरीन चित्रकार ऐसा कर पाते हैं लेकिन अपने भावों का सामना करना, ये मानना कि ये मेरे ही भाव हैं, कला नहीं साहस की बात है।

खैर! ये तो बहुत बड़ी बात है, हम तो अपने आप तक को देख-सुन नहीं पाते। सब दिखाई देता है हमें, सब सुनाई देता है हमें, सिवाय इसके कि हम क्या करते हैं, हम क्या बोलते हैं। आपको विश्वास नहीं होता तो आप एक ही वाक्य को अपनी और अपने कुछ दोस्तों की आवाज में टेप कर लीजिए फिर उन्हें सुनिए और बताइए कि उनमें से आपकी आवाज कौन सी है। आप हर्गिज, हर्गिज नहीं बता पायेंगे क्योंकि हमने आज के पहले कभी खुद को सुना ही नहीं। यह पहला मौका होगा जब हम अपने आपको सुन रहे होंगे। यहाँ तक कि जब आपको पता चलेगा तो आप कह उठेंगे, अरे! मैं ऐसे बोलता हूँ? 

हम ऐसे हैं इसमें हमारी गलती भी नहीं क्योंकि न तो हमें किसी ने सिखाया, न ही बताया कि ऐसा हम क्यों करें? हमें कैसे मालूम होगा कि इतनी सी बात हमारे जीवन को कितना सुन्दर बना सकती है पर दिवाली के मौसम में एक मिनट के लिए सोचिए, 
एक बार भी रावण अपने आपको देख-सुन पाता तो उस जैसा वीर शक्तिशाली महापण्डित वो गति पाता जो उसने पायी। 
निश्चित ही नहीं, तो फिर उस जैसा विद्वान भी ऐसा क्यों नहीं कर पाया? 
सिर्फ इसलिए ना कि उसका अहं ये कैसे मंजूर करता कि उससे गलती हो गई, क्योंकि राम तो तब भी उसे माफ करने को तैयार थे। 
क्या ऐसा करने से उसकी प्रतिष्ठा कम होती? 
कतई नहीं, शायद महापुरुषों में गिनती होती। 
लेकिन सारी बातों के बावजूद वो नहीं कर पाया ..........

तब से लगाकर आज तक व्यक्ति की ये समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, हम जो करते हैं, जो कहते हैं उसे देखने-सुनने को तैयार नहीं। हाँ, दूसरों का किया-सुना बड़ा साफ-साफ दिखाई-सुनाई पड़ता है, शायद कुछ ज्यादा ही। मेरा ध्यान भी इस बात पर तब गया जब मैंने पहली बार लुईस एल. हे की पुस्तक में इस बात को पढ़ा था। उसके बाद जब भी खुद को सुन पाता, हैरत रह जाता, बात नये ही परिपेक्ष्य में समझ आती, लगता गलत सिर्फ अगला ही नहीं है। स्थितियाँ सम्भलती और परिणाम बेहतर मिलते।  

मैं चाहता हूँ ज्यादा नहीं, दिन में एक बार ही सही आप जब भी किसी से बात करें खासकर उस समय जब आप उससे सहमत न हों और तब आप जो कह रहे हैं उसे स्वयं भी सुनें। मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि आप भी वैसा ही पायेंगे। आप उसकी बात को ज्यादा ध्यान से सुनने लगेंगे और फिर बेहतर समझने। ज्यादा गुंजाईश रहेगी कि अन्त में आप किसी नतीजे तक पहुँच पाएँ। आप अपनी बात को भी ढंग से कह पाएँगे और यदि आप सही हैं तो ख़ुशी-ख़ुशी अपनी बात मनवा भी पाएँगें। जिस दिन ऐसा करना हमारी आदत पड़ गयी, जिसकी कोशिश में मैं आज भी लगा हूँ, उस दिन निश्चित है कि हमारे न तो किसी से रिश्ते खराब होंगे न रहेंगे। 

किसी ने ठीक ही कहा है, "जब आप अकेले हों तब अपने विचारों पर ध्यान दीजिए और जब लोगों बीच में हों अपने शब्दों पर।" हमारे लिए ये रावण जितना मुश्किल भी नहीं होगा क्योंकि हमने वैसा अपराध भी तो नहीं किया पर इतना जरूर है कि ऐसा कर हम धीरे-धीरे ही सही अपने अन्दर के रावण को मारने में जरूर कामयाब हो जायेंगे।  

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