'ज्ञानी से कहिए कहा, कहत कबीर लजाए
अन्धे आगे नाचते कला अकारथ जाए।' - कबीर
आप कहना चाहे पर जरुरी है कि अगला सुनना भी चाहे। आप की नज़र में आप जो कह रहे है वह कितना ही महत्वपूर्ण या अच्छा क्यूँ न हो, वह तब तक निरर्थक है जब तक सुनने वाला भी ऐसा ही नहीं सोचता हो। कबीर यही तो कह रहे है कि, अन्यथा सारा ज्ञान व्यर्थ जाएगा।
कौन नहीं चाहता कि उसकी बात को गम्भीरता से लिया जाए? लेकिन ऐसा होता बहुत कम बार, बहुत कम लोगों के साथ है। आइए, सबसे पहले पड़ताल करते है कि व्यक्ति बोलता ही क्यूँ है? क्योंकि इसे जाने बिना ये नहीं समझा जा सकता कि व्यक्ति को कब, किसे और कितना कहना है? व्यक्ति के बोलने की मोटा-मोटी तीन वजहें होती है। पहली, जब भावनाओं का अतिरेक अभिव्यक्ति चाहे; दूसरी, किसी को राह दिखाना आपका दायित्व हो और तीसरी, जरुरी सूचनाओं के आदान-प्रदान के लिए।
भावनाओं का अतिरेक, चाहे वे ख़ुशी की हों या दुःख की, उनके साथ साझा कीजिए जिन्हें आपके सुख-दुःख से सरोकार हो। हो सकता है ऐसे लोग आपसे सहमत न हो, लेकिन इनका इरादा नेक होता है। इनकी असहमति में भी आपके भले की सोच ही छिपी है परन्तु हम चुनते है ऐसे लोगों को जो हमारी हाँ में हाँ मिलाते है क्योंकि इनसे हमें अपनी भावनाओं की तयशुदा स्वीकृति मिलती है। ऐसे लोग हमें क्षणिक ख़ुशी जरुर दे सकते है लेकिन हमारे जीवन को कभी उन्नत नहीं बना सकते। ऐसे लोगों, जिन्हें आपके सुख-दुःख से सरोकार है, से भी तब बात कीजिए जब वे स्वयं भावनात्मक स्तर पर आप से जुड़ पाने की स्थिति में हों, सम-स्थिति में हों और तब तक कीजिए जब तक उन्हें भी रस आए। यदि आप ध्यान रखेंगे तो उनका चेहरा आपको इशारा कर देगा।
सबसे नाजुक है ऐसे लोगों तक अपनी बात सही अर्थों में पहुँचा पाना जिन्हें राह दिखाना हमारा कर्त्तव्य हो। नाजुक इसलिए क्योंकि यहाँ हमारे कहे शब्द आपसी रिश्तों को खट्ठा या मीठा बना सकते है, खास तौर से हमारे बच्चों से हमारे रिश्तों को। मैंने अनुभव किया कि एक तरफ तो कुछ कहना नितांत जरुरी होता है तो दूसरी तरफ उन्हें ऐसी बातें सुनना कतई गवारा नहीं होता। इस तरह बात हमेशा नाराजगी पर ख़त्म हो जाया करती थी। मैंने जो पाया वह यह कि यदि ऐसी स्थिति है तो सबसे पहले हमें हमारे कहे कि जरुरत पैदा करनी होगी, फिर चाहे वो हमारे बात करने के तरीके से हो या हमारे आचरण से। उनके स्तर पर जाकर उनके मन के दरवाजों को खोलना होगा, शब्दों की बजाए उनके छिपे अर्थों को पकड़ने की कोशिश करनी होगी और यह सब तब ही होगा जब उन्हें पक्का विश्वास हो की उनकी बात आपकी नज़र में गलत हो या सही, बात नकारी जा सकती है वे नहीं। आपका प्रेम अखंडित रहेगा। मैंने कोशिश शुरू कर दी है और मजा आने लगा है।
बोलने की आखिरी वजह, सूचनाओं का आदान-प्रदान। वैसे तो यह जीने की जरुरत है लेकिन 'फर्स्ट-इनफॉर्मर' नाम की बीमारी से तो, तो भी बचना होगा। इस बीमारी में हम लोगों को कोई बात सिर्फ इसलिए बताते फिरते है जिससे हम सिद्ध कर सकें कि सबसे पहले ये हमें मालूम चली है। ऐसी हालत हमें सिर्फ हँसी का पात्र ही बनाती है।
मेरे सबसे प्रिय लेखक श्री कन्हैयालाल मिश्र 'प्रभाकर' अपनी पुस्तक 'बाजे पायलिया के घुंघरू' के प्राक्कथन में लिखते है कि जो कहें, ह्रदय से कहें न कि बुद्धि से। ह्रदय विश्वासी और बुद्धि अविश्वासी। ह्रदय से कही बात ह्रदय में उतरती है जबकि बुद्धि से कही बात बुद्धि से टकराकर लौट आती है। वे आगे लिखते है कि आपके शब्द किसी को निरुत्तर करने के लिए नहीं बल्कि एक-दूसरे के मन को शांत करने के लिए हों। मुझे नहीं लगता की अपनी बात को प्रभावी बनाने का इससे सहज-सुन्दर कोई और गुरु-मंत्र हो सकता है।
(जैसा कि नवज्योति में रविवार, 12 मई को प्रकाशित)
आपका
राहुल.......
Alongwith all these things, the tone of our words is also very important.
ReplyDeleteBest Wishes
(mail by Shakuntalaji Mahawal)
आप बिल्कुल ठीक कहती है। स्वर शब्दों का अर्थ बदल देते है।
ReplyDeleteमेरे आलेख का केंद्रीय विचार था ' आप कहें तब जब सुनना अगले की जरुरत हो और यदि कहना आपकी जरुरत है तो ध्यान रहे कि वो सरस बना रहे' शायद इसीलिए मैं 'हम कैसे कहते है' को शामिल नहीं कर पाया लेकिन निश्चित ही यह बहुत अहम् है।
इतना अहम् की शब्दों से ज्यादा जरुरी है स्वर का साधना और शायद इसलिए मुझे इसे शामिल करना चाहिए था। आपके इतने अच्छे 'फीड बैक' के लिए धन्यवाद।
Rahul, your write up flowed very well.' How to say' is definitely a different aspect, May be you can sometime think of another write up just on this. As I felt many of us are not careful about it and misunderstandings do arise out of it.
ReplyDeleteBest Wishes
Thank you very much.
ReplyDeleteI will definitely try to handle the aspect, it is really interesting & important.