........ और आख़िरकार संजय दत्त को जेल जाना पड़ा। जब ये फैसला आया था कि उन्हें अपनी बाकि बची सज़ा भी काटनी पड़ेगी; सारे अखबारों, न्यूज़ चैनल्स पर ये खबर सुर्ख़ियों में छाई थी। कहीं उनके इंटरव्यू तो कहीं उस घटना से लेकर आज तक का सिलसिलेवार विवरण तो कहीं आमजन की प्रतिक्रियाएँ, फिर उनकी दया याचिका और फिर उसका खारिज होना। मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता कि उन्हें 'दया' मिलनी चाहिए थी या नहीं। हाँ, एक बात जो उन्होंने अपने एक इंटरव्यू में कही, का जिक्र जरुर करना चाहूँगा।
जब उनसे पूछा कि आप ऐसी कोई बात श्रोताओं के साथ बाँटना चाहेंगे जो आपने अपनी पिछली डेढ़ साल की सजा के दौरान शिद्दत से महसूस की हो तो वे बोले, 'फ्रीडम'। जिन्दगी में सबसे महत्वपूर्ण कोई चीज है तो वह है - आज़ादी। आज़ादी, अपने तरीके से हक़ के साथ जीने की। उस डेढ़ साल में अहसास हुआ कि आज़ादी से बढ़कर कुछ नहीं।
वास्तव में, सच ही तो है हम अपनी जिन्दगी के, इस आज़ादी के इतने अभ्यस्त हो जाते है कि इसकी सही क़द्र नहीं कर पाते। पता तब चलता है जब ये हमारे पास नहीं होती। कहीं भी आ-जा सकना, किसी से भी मिलना, अपने विचारों को जस के तस प्रकट कर पाना, यहाँ तक कि अपनी पसंद के कपडे पहनना या अपनी पसंद और सुविधा से खा पाना और न जाने क्या-क्या, अनगनित। ये सब भूल जाते है और फिर करने लगते है इस आज़ादी का दुरूपयोग। वैसे इस आज़ादी के बदले हमें देना ही क्या होता है, सिर्फ एक अच्छा नागरिक आचरण किन्तु न जाने क्यूँ हम वो सीमा भी लाँघ जाते है। शायद छोटे-मोटे लालच या ये सिद्ध करने का अहं कि मैं इस व्यवस्था से ऊपर हूँ।
ये सारी बात हमारी इसी मनोवृति को उजागर करती है कि जो कुछ हमें प्राप्त है हम उसकी इज्ज़त नहीं करते। मन में कृतज्ञता का भाव हो तो निश्चित ही वो हमें गलत रास्तों पर जाने से रोके। अपने तरीके से जीने की आज़ादी ही की तरह जिन्दगी की न जाने कितनी नियामतें है जिनकी हम वाज़िब क़द्र नहीं करते।क़द्र नहीं करते वहाँ तक तो ठीक है, कभी-कभी बेइज्जती भी कर बैठते है तब वे रूठ कर चली जाती है। अब भला प्रकृति क्यूँ अपमान सहन करेगी और तब हमें अहसास होता है कि हमारे पास क्या था और हमने क्या खोया है? शायद संजय दत्त भी कुछ ऐसे ही अहसास साझा कर रहे थे।
आज देश और समाज की जो हालत है उसके पीछे, आपको नहीं लगता, आज़ादी की बेकद्री ही अहम् वजह है। जो कुछ आज हमें सहज-सुलभ है पहले उसकी कल्पना कर पाना ही मुश्किल था। हम सबने इस आज़ादी का दुरूपयोग अपने-अपने छोटे फायदों के लिए किया, ये सोचकर की मेरे अकेले के कुछ करने या न करने से क्या फर्क पड़ता है। ऐसा सभी ने सोचा और आज फर्क हमारे सामने है। आज जो कुछ हम झेल रहे हैं, उसके जिम्मेवार हम सब हैं।
इन सब के बीच एक बात जो मन में उम्मीद की लौ जलाए है वो ये कि यदि एक अकेला व्यक्ति व्यवस्था बिगाड़ सकता है तो सुधार भी सकता है। अपने निजी-स्वार्थों के लिए आज़ादी का दुरूपयोग करते समय क्या हमने चिंता की थी कि कोई और हमारा साथ देगा या नहीं। अब उसका तो परिणाम अच्छा निकला नहीं। आज जब अपनी जिन्दगी की बेहतरी के लिए एक अच्छे नागरिक धर्म को निभाने की दरकार है तो हमें किसी और का साथ क्यूँ चाहिए?
अरे! लोग तो जैसे पहले जुड़े थे अब भी जुड़ जाएँगे।
आज जरुरत है अपनी क्षमताओं को आँकने की। इस बात को सोचने औए समझने की, कि मेरे अकेले के कुछ करने या न करने से ही सारा फर्क पड़ता है। मैं अपने जीवन की बेहतरी चाहता हूँ तो बेहतर आचरण की शुरुआत मुझे ही करनी होगी, मुझे किस की प्रतीक्षा है और क्यों? फिर शायद कोई किसी से नहीं कहेगा 'ये सिस्टम ही ऐसा है'।
(दैनिक नवज्योति में रविवार, 26 मई को प्रकाशित )
आपका
राहुल ..............