एक था राजा, गुणों का पारखी। एक से बढ़कर एक रत्न थे उसके दरबार में। उनमें भी एक उनका बिल्कुल खास जिसे वे हमेशा अपने साथ रखते थे क्योंकि उसके पास हर दुविधा का जवाब होता था। हर मुश्किल को देखने का अलग नजरिया। इसके बावजूद राजा उसकी एक आदत से बहुत परेशान था। वो थी, बुरी से बुरी बात में भी बहुत अच्छा देखने की कोशिश करना। कई बार तो हद ही हो जाती थी।
ऐसा ही हुआ जब एक बार राजा उसे शिकार पर अपने साथ ले गए। मचान पर बैठने और अपनी स्थिति लेने से ठीक पहले राजा अपने हथियार सम्भाल रहे थे। क्या मालूम क्या हुआ कि उनके हाथ से अचानक ही तलवार छिटक गई और जा गिरी सीधे पैर के अंगूठे पर और अंगूठा अलग। राजा दर्द से कराह उठे। उनका वो मित्र दरबारी लपका लेकिन पट्टी बाँधते हुए बोलने लगा, 'चलो! अच्छा ही हुआ, इसमें भी कुछ अच्छा ही होगा।' इस बार राजा अपने गुस्से को नहीं सम्भाल पाए। उन्होंने उसे सूखे कुएँ में धकेल, मरने के लिए छोड़ दिया और स्वयं वापस लौटने लगे। इधर जंगल के आदिवासी अपनी पूजा-अर्चना के लिए नर-बलि ढूंढ़ रहे थे। उन्होंने लौटते हुए राजा को धर लिया। राजा को तैयार करके बलि के लिए लाया गया। अचानक उनके पुरोहित की नज़र राजा के नदारद पैर के अंगूठे पर पड़ी। उसने सारा उत्सव वहीं रुकवा दिया। अंग-भंग वाले नर की बलि नहीं दी जा सकती थी और राजा उनके चंगुल से छूट गया।
राजा को अपनी गलती का अहसास हो रहा था, वो तेजी से उस सूखे कुएँ के पास पहुँचे। अपने मित्र को सही-सलामत देख उनके जान में जान आयी। उसे बाहर निकाला और उससे माफ़ी माँगने लगे। मित्र बोला, 'कोई बात नहीं राजन, माफ़ी की कोई जरुरत नहीं। ये भी अच्छा ही हुआ।' इस बार राजा को गुस्सा नहीं आया पर उसने पूछा जरुर कि अब इसमें तुम्हें क्या अच्छा नज़र आ रहा है? मित्र बोला, सोचो राजन! यदि मैं आपके साथ होता तो मेरी बलि चढ़ जाती। राजा अवाक रह गए।
हमें पूरी बात कहाँ मालूम? इस कहानी की ही तरह कितनी बार नहीं होता कि जो बात हमें घटते समय दुर्भाग्यपूर्ण लगती है वही आगे चलकर हमारे लिए फायदेमंद साबित होती है। कई बार तो वे हमारे जीवन का निर्णायक मोड़ होती है। हम खामखाँ ही परेशान होते है। हमारा काम तो महज इतना है कि अनचाही परिस्थितियों में भी जितना हो सके शांत मन एवम पूर्ण विवेक के साथ जो उचित हो वो करते चले जाएँ। जीवन के प्रति यह दृष्टी कुछ ही समय में यह अहसास करवा देगी कि स्थिति कोई भी अच्छी या बुरी नहीं होती, वे सिर्फ स्थितियाँ होती है। ये क्षण बीते क्षणों का नतीजा जरुर होता है लेकिन इस क्षण को कैसे और कितना सुन्दर बनाना हमेशा हमारे हाथ होता है।
जिस तरह हम स्थितियों के अच्छी या बुरी होने की धारणा बना लेते है वैसे है हम अपनी आधारभूत प्रकृति के बारे में भी धारणा बना लेते है। कोई कम बोलता है तो कोई ज्यादा, किसी को अकेला रहना पसंद है तो कोई लोगों से घिरा रहता है और ऐसे ही न जाने कितने भिन्न स्वभाव। जिस में जो है उस पर ही वो अवगुण का लेबल चस्पा कर देता है और अपने मन में ग्लानि और हीन-भावना के लिए जगह खाली कर देता है। क्या सच हमें पक्का मालूम है कि ये जिन्दगी हमें कहाँ ले जाना चाहती है, उनके लिए किन विशेषताओं की जरुरत है?
आप जैसे है ठीक है, स्थितियाँ जैसी है ठीक है। यदि आपका अंतर्मन कहता है कि आप अपने में या स्थितियों को बदलिए तो ऐसा जरुर कीजिए लेकिन उन्हें गुण-अवगुण या अच्छी-बुरी के कठघरे में खड़ी मत कीजिए। जी है वो अच्छा है तभी जो होगा वो भी अच्छा होगा।
(जैसा की नवज्योति में रविवार, 14 अप्रैल को प्रकाशित)
आपका
राहुल .............
very simply explained a very critical aspect....self realization :)
ReplyDeleteYou have given it perfect one word. You reads me to understand and that touches. Thanks.
ReplyDeleteYou are right , we have to learn the art of observer, how to observe the situation without getting involved in it. It has been observed that most often you get unwanted or unasked for opinion.
ReplyDeleteIt is good write up, thanks for forwarding it .
With best wishes
Dr Parmanand
(Mail from Doc Sb.)
Thanks a lot Doc Sb.
ReplyDeleteApne ko dur hokar dekhpana adhikaansh samsyaon ka samadhaan ho sakta hai.
regards....