शाम का समय था, कॉलोनी पार्क में बहुत चहल-पहल थी। पेड़ की छाँव में खड़ी दो महिलाएँ आपसी बातचीत में थोड़ी देर के लिए मशगूल क्या हुई उनके दोनों बच्चे न जाने कब आँख चुरा उसी पेड़ पर चढ़ गए। जैसे ही ध्यान गया, एक मिनट के लिए तो दोनों ही बुरी कदर घबरा गई। बच्चे भी समझ गए और नीचे उतरने लगे। पहली महिला अपने बेटे से बोली, बेटा! ध्यान से, कहीं गिर न जाओ। दूसरी ने कहा, बेटा! सम्भल कर, तुम उतर पाओगे। पहली वाली का बेटा उतरते हुए गिर पड़ा जबकि दूसरी वाली का बेटा धीरे-धीरे आराम से उतर पाया।
दोनों बच्चों की क्षमताओं में कोई कमी नहीं थी, जिस बच्चे के अवचेतन ने जैसा सुना वैसा किया। एक ने 'गिरना' सुना तो दूसरे ने 'सम्भलना'। हमारे लिए भी यह ध्यान रखना बहुत जरुरी है कि हमारा अवचेतन क्या ग्रहण कर रहा है। हमारा अवचेतन विचार-वाक्य में सिर्फ क्रिया को समझ पता है जैसे उसने 'गिरना' तो समझा लेकिन उसके साथ लगे 'न' को नहीं समझ पाया। चेतन-शक्ति जिसके लिए असम्भव कुछ भी नहीं, जुट जाती है उसे वास्तविकता में बदलने जो अवचेतन ने सुना-समझा होता है। अब आप ही बताइए कितना जरुरी है ऐसे लोगों से दूर रहना जो बात-बात पर हमें अपनी कमतरी का अहसास कराते हों, हमारी आलोचना करते हों, चाहे उनकी मंशा कितनी ही अच्छी क्यूँ न हो।
हम सब के जीवन में ये शुभचिंतक दोस्त, रिश्तेदार या संगी-साथी के रूप में मौजूद है। इन बेचारों की कोई गलती नहीं, इनका अहं इन्हें ऐसा करने को मजबूर करता है। अहं इनकी अच्छाई, बुद्धिमत्ता और सामर्थ्य को अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने में उपयोग लेने लगता है और ये उसके हाथ की कठपुतली बन जाते है। बेशक ये हमारा भला ही चाहते है लेकिन अपनी श्रेष्ठता का अहसास करवाये बिना ये ऐसा कर ही नहीं पाते और ऐसा करने के लिए जाने-अनजाने ये हमें गलत सिद्ध करने लगते है। कुछ लोगों को तो मदद करने की लत होती है, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं होता कि अगले को इसकी जरुरत भी है या नहीं।
संयम तो हमें जिन्दगी की मुश्किल घड़ियों में रखना होता है। एक तरफ तो हमारा कमजोर विश्वास तो दूसरी तरफ मदद को हमेशा बेताब ये लोग। ऐसे समय भी हमें हर सम्भव कोशिश करनी चाहिए कि हम ऐसे लोगों से बचे रहें। हो सकता है उस समय-विशेष का काम इनकी मदद से आराम से पूरा हो जाए लेकिन इनकी मदद करने का तरीका हमें ज्यादा लम्बे समय के लिए मानसिक रूप से कमजोर बना सकता है जिससे उबर पाना भी बहुत कठिन। इसके बावजूद ऐसे लोगों की मदद लेनी भी पड जाए तो अपना ध्यान रखिए कि इनकी अहम् तुष्टि के चलते आप में कोई हीन या कमतरी की भावना घर न कर जाए।
मैं कतई इस बात की पैरवी नहीं कर रहा कि हमें किसी की मदद नहीं लेनी चाहिए बल्कि मैं तो मानता हूँ कि वाजिब मदद माँगने में बिल्कुल झिझक नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं है तो फिर वो हमारा अहं है लेकिन हाँ, इतना जरुर है कि इस बात का ख़ास ख्याल रखना चाहिए कि हम मदद ले किस से रहे हैं? मदद लेने और देने का आधार प्रेम हो न कि अहं की तुष्टि।
अपने रिश्तों का आधार विचारों, मूल्यों और प्रेम को बनाइए न कि कौन सा व्यक्ति कितना काम आ सकता है, फिर देखिए जिन्दगी की कोई परेशानी आपके पास फटक ही नहीं सकती और रही बात उन लोगों कि तो मैं बस इतना ही कहूँगा कि ऐसे भलों से तो दूरी भली।
(दैनिक नवज्योति में रविवार, 21 अप्रैल को प्रकाशित)
आपका
राहुल ..............