व्यक्ति को उसका काम नहीं, स्थितियाँ थकाती है आज जब हमारे सामने विकल्पों का ढेर है तब स्थितियाँ ज्यादा थका रही है। आप शहर के किसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर दो मिनट के लिए खड़े हो जाइए, शायद ही आपको कोई शांत चेहरा नज़र आएगा। एक दुविधा नज़र आती है, ऐसा लगता है व्यक्ति जो कर रहा है वह पूरे मन से नहीं और जो नहीं कर रहा है वह पूरे विश्वास से नहीं।
यह दुविधा ही तनाव का कारण है। एक डर है मन में कि जिस रास्ते को पकड़ा है वह ठीक तो है और जिसे छोड़ा है वह भविष्य में अफ़सोस का कारण तो नहीं बन जाएगा। डर वास्तव में भूत की कोख से जन्म लेता है और भविष्य में निवास करता है। हो सकता है भूतकाल में आपके लिए कुछ निर्णय गलत सिद्ध हुए हों लेकिन क्या वे सही निर्णयों तक पहुँचने का एकमात्र उपलब्ध रास्ता नहीं थे? आपने जो भी निर्णय लिए वे उस दिन की आपकी समझ और समय-परिस्थिति के हिस़ाब से बिल्कुल सही थे। आज आप कहीं समझदार और परिपक्व है, और बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में है तो उन कम ठीक निर्णयों की ही बदौलत। जीवन का कोई अनुभव फ़ालतू नहीं होता। अपने निर्णयों पर मजबूत रहिए और आगे बढिए, आगे का रास्ता अपने आप बनता चला जाएगा।
रही बात जिस रास्ते को छोड़ा है भविष्य में उसे नहीं चुनने का अफ़सोस रह जाने का, तो निश्चिन्त रहिए, यदि ऐसा हुआ भी है तो प्रकृति पुनः नये तरीके से विकल्पों के साथ आपके सामने प्रस्तुत होगी। आपको फिर-फिर मौका देगी। प्रकृति को आपसे कोई अहंकार नहीं, ये तो वो शिक्षक है जो विद्यार्थी को तब तक मौका देती है जब तक विद्यार्थी उत्तीर्ण न हो जाए। मुझे याद आ रही है पूर्व सेनाध्यक्ष श्री वी.के.सिंह की वो उक्ति जो उन्होंने अपने हाल ही के जयपुर आगमन पर एक आख्यान में उद्धृत की थी, 'जीवन हौसलों से चलता है, हौसले निर्णयों से पैदा होते है, सही निर्णय अनुभवों की देन होते है लेकिन अनुभव, गलत निर्णयों की वजह से ही होते है।'
जीवन में कुछ स्थितियाँ ऐसी भी होती है जहाँ विकल्प हमारी भावनाओं से, हमारे दिल से जुड़े होते है। एक दूसरी तरफ जाने से रोकता है तो दूसरा पहली तरफ। दुविधा की ऐसी विकट घड़ी में आप अपने आपको उस स्थिति से अलग कर देखने की कोशिश करें। आप की जगह कोई और होता तो क्या करता? इस तरह निरपेक्ष भाव से देखने पर आपको सारे पहलू साफ़-साफ़ नज़र आने लगेंगे और तब आपके लिए तय कर पाना कहीं आसान होगा।
सारी दुविधाओं की वजह हमारे गलत पैमाने है जिन पर हम अपने निर्णयों को कसते है। हम उपलब्ध विकल्पों को लाभ-हानि या हार-जीत के तराजू में तौलते है और इसलिए हमेशा मन में हारने का, खोने का एक डर समाया रहता है। निर्णय का पैमाना सिर्फ विकल्प की उपयुक्तता होनी चाहिए। जो देश, काल, समय और परिस्थिति में उपयुक्त हो। जो हमारा कर्त्तव्य है। जिसमें हम सब का भला निहित है। यही निरपेक्ष भाव है जहाँ आपको विकल्पों और परिणामों से मोह नहीं, आपके लिए क्या उचित है, सिर्फ इसका ख्याल है।
सुन-पढ़कर निश्चित रूप से आपको लगेगा कि ऐसे तो इस तरह तो दुनिया में जी पाना सम्भव ही नहीं, लेकिन यही तो मजे की बात है। निरपेक्ष भाव से लिए निर्णय ही हमारे लिए लाभदायक और हमें विजयी बनाते है। सच ही है, हम सभी इस कर्म-भूमि के अर्जुन है तो सारथी कृष्ण भी हमारे ही भीतर मौजूद है, बस जरुरत है हम निर्णय की रासें उस निर्लिप्त कृष्ण के हाथों सौंप दें।
( नवज्योति में रविवार, 17 फरवरी को प्रकाशित)
आपका
राहुल .............