Friday, 22 February 2013

जाऊं कहाँ बता-ए-दिल



व्यक्ति को उसका काम नहीं, स्थितियाँ थकाती है आज जब हमारे सामने विकल्पों का ढेर है तब स्थितियाँ ज्यादा थका रही है। आप शहर के किसी भीड़-भाड़ वाली जगह पर दो मिनट के लिए खड़े हो जाइए, शायद ही आपको कोई शांत चेहरा नज़र आएगा। एक दुविधा नज़र आती है, ऐसा लगता है व्यक्ति जो कर रहा है वह पूरे मन से नहीं और जो नहीं कर रहा है वह पूरे विश्वास से नहीं।

यह दुविधा ही तनाव का कारण है। एक डर है मन में कि जिस रास्ते को पकड़ा है वह ठीक तो है और जिसे छोड़ा है वह भविष्य में अफ़सोस का कारण तो नहीं बन जाएगा। डर वास्तव में भूत की कोख से जन्म लेता है और भविष्य में निवास करता है। हो सकता है भूतकाल में आपके लिए कुछ निर्णय गलत सिद्ध हुए हों लेकिन क्या वे सही निर्णयों तक पहुँचने का एकमात्र उपलब्ध रास्ता नहीं थे? आपने जो भी निर्णय लिए वे उस दिन की आपकी समझ और समय-परिस्थिति के हिस़ाब से बिल्कुल सही थे। आज आप कहीं समझदार और परिपक्व है, और बेहतर निर्णय लेने की स्थिति में है तो उन कम ठीक निर्णयों की ही बदौलत। जीवन का कोई अनुभव फ़ालतू नहीं होता। अपने निर्णयों पर मजबूत रहिए और आगे बढिए, आगे का रास्ता अपने आप बनता चला जाएगा।

रही बात जिस रास्ते को छोड़ा है भविष्य में उसे नहीं चुनने का अफ़सोस रह जाने का,  तो निश्चिन्त रहिए, यदि ऐसा हुआ भी है तो प्रकृति पुनः नये तरीके से विकल्पों के साथ आपके सामने प्रस्तुत होगी। आपको फिर-फिर मौका देगी। प्रकृति को आपसे कोई अहंकार नहीं, ये तो वो शिक्षक है जो विद्यार्थी को तब तक मौका देती है जब तक विद्यार्थी उत्तीर्ण न हो जाए। मुझे याद आ रही है पूर्व सेनाध्यक्ष श्री वी.के.सिंह की वो उक्ति जो उन्होंने अपने हाल ही के जयपुर आगमन पर एक आख्यान में उद्धृत की थी, 'जीवन हौसलों से चलता है, हौसले निर्णयों से पैदा होते है, सही निर्णय अनुभवों की देन होते है लेकिन अनुभव, गलत निर्णयों की वजह से ही होते है।'

जीवन में कुछ स्थितियाँ ऐसी भी होती है जहाँ विकल्प हमारी भावनाओं से, हमारे दिल से जुड़े होते है। एक दूसरी तरफ जाने से रोकता है तो दूसरा पहली तरफ। दुविधा की ऐसी विकट घड़ी में आप अपने आपको उस स्थिति से अलग कर देखने की कोशिश करें। आप की जगह कोई और होता तो क्या करता? इस तरह निरपेक्ष भाव से देखने पर आपको सारे पहलू साफ़-साफ़ नज़र आने लगेंगे और तब आपके लिए तय कर पाना कहीं आसान होगा।

सारी दुविधाओं की वजह हमारे गलत पैमाने है जिन पर हम अपने निर्णयों को कसते है। हम उपलब्ध विकल्पों को लाभ-हानि या हार-जीत के तराजू में तौलते है और इसलिए हमेशा मन में हारने का, खोने का एक डर समाया रहता है। निर्णय का पैमाना सिर्फ विकल्प की उपयुक्तता होनी चाहिए। जो देश, काल, समय और परिस्थिति में उपयुक्त हो। जो हमारा कर्त्तव्य है। जिसमें हम सब का भला निहित है। यही निरपेक्ष भाव है जहाँ आपको विकल्पों और परिणामों से मोह नहीं, आपके लिए क्या उचित है, सिर्फ इसका ख्याल है।

सुन-पढ़कर निश्चित रूप से आपको लगेगा कि ऐसे तो इस तरह तो दुनिया में जी पाना सम्भव ही नहीं, लेकिन यही तो मजे की बात है। निरपेक्ष भाव से लिए निर्णय ही हमारे लिए लाभदायक और हमें विजयी बनाते है। सच ही है, हम सभी इस कर्म-भूमि के अर्जुन है तो सारथी कृष्ण भी हमारे ही भीतर मौजूद है, बस जरुरत है हम निर्णय की रासें उस निर्लिप्त कृष्ण के हाथों सौंप दें।


( नवज्योति में रविवार, 17 फरवरी को प्रकाशित) 
आपका 
राहुल .............               

Friday, 15 February 2013

तुम्हें याद दिला दूँ



हजारों साल पुरानी बात है जब ईसाई धर्म अपने शैशव काल में था। इन दिनों उन लोगों को तरह-तरह से कुचला और रौंदा जा रहा था जो ईसाई धर्म की शिक्षाओं में विश्वास करने लगे थे। ऐसे ही एक व्यक्ति थे वेलेन्टीनस, जिन्हें ईश्वर के प्रेम पर अटूट विश्वास था। उन्हें लोगो को भड़काने के जुर्म में कैद कर लिया गया, उन पर मुकदमा चला और पहले से तय फाँसी की सजा सुना दी गई।

कैद के दौरान जेल के चौकीदार ने भांप लिया था कि यह व्यक्ति साधारण नहीं है। वह रोज अपनी अंधी बेटी जूलिया को शिक्षा-संस्कार के लिए उनके पास लाने लगा एक दिन जूलिया ने वेलेन्टीनस से पूछा, " क्या मैं कभी देख पाऊँगी?" वेलेन्टीनस ने जवाब दिया "बेटा ! दिल में प्रेम और परमात्मा में विश्वास हो तो सब कुछ संभव है।" वेलेन्टीनस की प्रेरणा पाकर उस क्षण जूलिया का ह्रदय परम और विश्वास से लबालब हो गया, जहां किसी आशंका की कोई गुंजाईश नहीं थी। उसी क्षण कुछ हुआ, और जूलिया के आँखों की रोशनी वापस लौट आयी। 

दूसरे दिन जब जूलिया वापस अपने गुरु से मिलने पहुँची तब तक उन्हें फाँसी के लिए ले जाया जा चुका था। हाँ, उसे अपने नाम एक पत्र जरुर मिला,-

         मेरी प्रिय जूलिया,

                   शायद हम वापस कभी न मिलें लेकिन एक बात हमेशा ध्यान रखना, मैं तुम्हें हमेशा 
                   प्रेम करता रहूँगा। तुम मुझे बहुत प्रिय हो। मैं हमेशा तुम्हारे पास हूँ, तुम्हारे दिल में 
                   ही तो रहता हूँ। मुझे तुम में पूरा विश्वास है। 

                                                                                                            तुम्हारा,
                                                                                                            वेलेन्टाईन

           .......... और ह्रदय के असीमित प्रेम ने वेलेन्टीनस को 'सेंट वेलेन्टाईन' बना दिया और जिस तरह उन्होंने अपने प्रेम और विश्वास का इज़हार जूलिया से किया वही याद रखने और उन्हें आदरांजलि देने के लिए हम हर साल यह दिन 'वेलेन्टाईन डे' के रूप में मनाने लगे।

यह दिन है एक-दूसरे को याद दिलाने का कि आपका प्रेम बिना शर्त है, यह विश्वास दिलाने का कि हर स्थिति में आप उनके साथ है और यह भरोसा दिलाने का कि आपको उनमें पूरा विश्वास है। आपको नहीं लगता यह अहसास ही काफी है व्यक्ति के लिए वह सब कर गुजरने के लिए जो साधारण स्थितियों में उसके लिए सम्भव ही नहीं। इसीलिए इस दिन की महत्ता और बढ़ जाती है। यह दिन उन लोगों को स्वयं से परिचय कराने का है जिनसे आप प्रेम करते है। आप अपनी भावनाओं का इजहार कर अपने प्रिय की मुलाकात उसकी असाधारणता से करवाते है।

अनाश्रित प्रेम और अखंडित विश्वास से अधिक पवित्र इस दुनिया में और कुछ नहीं। परमात्मा के प्रति इसी प्रेम और विश्वास ने जूलिया के आँखों की रोशनी लौटा दी। यदि हम अपने जीवन में अपने प्रियजनों को इसी प्रेम और विश्वास के लिए प्रेरित कर सकें, तो यह दुनिया निश्चित ही स्वर्ग से बेहतर होगी।


(दैनिक नवज्योति में रविवार, 10 फरवरी को प्रकाशित) 
आपका 
राहुल .............

Friday, 8 February 2013

अर्थ, कर्म और जीवन



वॉरेन बफ़ेट, दुनिया के तीसरे सबसे धनी व्यक्ति, 2012 में 'टाइम' मैग्जीन द्वारा प्रमाणित दुनिया के सबसे प्रभावशाली व्यक्ति। जिनकी कुल सम्पत्ति 46 बिलियन डॉलर यानि करीब 2,53,000 करोड़ रुपये। जिन्होंने अपनी सम्पति का 99% भाग 'बिल एंड मेलिंदा फाउंडेशन' को दान कर दिया। जिन्होंने दुनिया के 20 सबसे अमीर व्यक्तियों को इकट्ठा कर यह समझाने की कोशिश की, कि उन्हें अपनी सम्पति का आधा हिस्सा परोपकार में लगा देना चाहिए। जो आज भी अपने उसी पुराने घर में रहते है जो उन्होंने आज से 50 साल पहले ख़रीदा था। अमेरिका के नेबरस्का के पास ओहामा में उनका तीन कमरों का निवास बिल्कुल सामान्य पड़ोस की तरह जान पड़ता है। इन सारी बातों में यही वो बात थी जिसने मेरे मन को आन्दोलित किया। उनके रहन-सहन के बारे में और जानकारी जुटाने की कोशिश की तो आश्चर्य हुआ कि न तो वे अपने साथ मोबाइल रखते है और न ही उनकी ऑफिस टेबल पर कोई कम्प्यूटर ही है।

वॉरेन बफेट मुझे जीता-जागता उदाहरण लगे जो धन का उपयोग कर रहे है धन उनका उपयोग नहीं कर रहा। चीजें हमारे जीवन को नहीं चलाए, जीवन को चलाने के लिए हम चीजों को उपयोग में लें। आजकल हमारी हालत तो ऐसी है कि किसी कारण से कुछ घंटों मोबाइल न बजे तो बेचैनी-सी होने लगती है। लगता है हमारी कहीं जरुरत ही नहीं या हमारे पास कोई काम ही नहीं। बच्चे कहीं ऐसी जगह चले जाएँ जहां टी.वी. नहीं हो तो उन्हें ऑक्सीजन की कमी महसूस होने लगती है और महिलाएँ यदि फैशन या चलन की जानकारी न रख पाएँ तो उन्हें लगता है, वे पिछड़ गयी है, कहीं उनका आकर्षण कम न हो जाएँ। 

ये छोटी-छोटी बातें यहीं तक सीमित नहीं है, ये हमारी पूरी मनोदशा को रेखांकित करती है। आप कहेंगे, हमने मेहनत से पैसा कमाया है तो हमारा हक़ बनता है कि हम उसका भरपूर आनन्द लें। दूसरी तरफ, ये भी ठीक है कि कम और ज्यादा का कोई मापदण्ड नहीं होता जो आपके लिए कम है वही किसी के लिए बहुत ज्यादा है। अनावश्यक है, फिजूल है। आपकी दोनों बातें बिल्कुल ठीक है लेकिन जरुरत है इन दोनों को उधेड़ने की। पहली बात तो 'धन का आनंद', वो तब ही संभव है जब तक धन, आप जैसी जिन्दगी चाहते है उसे पाने में आपका सहयोग करें न कि उसकी मात्रा यह निश्चित करे कि आप कैसा जीवन जिएँगे। दूसरी बात, 'कम या ज्यादा', तो ये पैमाना सिर्फ आपका अपना होगा आप जिन और जितनी चीजों के साथ सहज है वही आपके लिए बिल्कुल ठीक है, उचित है, न कम न ज्यादा।

जीवन की आधारभूत जरूरतें हमारे कर्म की प्रेरणा हो सकती है लेकिन उसके बाद यह हमारी रचनात्मकता की अभिव्यक्ति ही है। हमारा पुरुषार्थ, हमारी उद्यमशीलता ही है। आप कितना कमाते है और आप कैसे रहते है, ये दोनों अलग-अलग बातें है।  आपकी रचनात्मकता आपको अधिक से पुरुस्कृत करती है तो यह ख़ुशी और संतुष्टि का प्रसंग है। यह प्रकृति ओर से दी आपको दी गई शाबासी है, लेकिन यहाँ एक अहम् प्रश्न स्वतः पैदा होता है कि फिर व्यक्ति सहज जीवन से अतिरक्त धन का क्या करें? इसका उत्तर चाणक्य देते है। वे कहते है, धन की केवल तीन गतियाँ होती है; उपभोग, दान एवं विनाश। उचित उपभोग के बाद शेष बचे धन को दान, यानि परोपकार में लगाना ही श्रेष्ठ है वरन उसका विनाश निश्चित है। आप इस सृष्टि के ताने-बाने का एक तागा है, और वस्त्र की सुन्दरता भी आप ही की जिम्मेदारी है।

यही वॉरेन बफेट ने किया। जीवन के साथ अपनी सहजता को बनाए रखा वरना क्या जरुरत थी कि एक प्राइवेट विमान कम्पनी का मालिक, यात्री विमान के इकॉनोमी क्लास में सफ़र करें। आप भी उस बिन्दु को तलाशें जहां आपका रहन-सहन और सहज-जीवन आपस में मिलते हों। यहाँ जिन्दगी की डोर आपके हाथ में होगी और आपकी समृद्धि आपके जीवन में आनन्द की सहायक होगी।


( रविवार, 3फरवरी को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका 
राहुल ..........  

Saturday, 2 February 2013

प्रेरणा




प्रिय दोस्तों,
        नमस्ते,

                26 जनवरी के अवकाश के कारण 27, रविवार को अख़बार नहीं छपे और मुझे मौका मिल गया कि मैं आपसे कुछ विशेष, कुछ अलग हट के साझा कर सकूँ।

रूस के प्रसिद्द कवि वसिली सुखोम्लीन्सकी की यह कविता मुझे एक पेंटिंग एक्जीबिशन में मिली। पोस्टकार्ड साइज में छपी यह रचना पेंटर बतौर अपने विजिटिंग कार्ड इतेमाल कर रहा था। मुझे इतनी भायी की कुछ दिनों बाद मैंने इसे फ्रेम करवा अपने स्टडी टेबल की दीवार पर लगा लिया। मुझे इस कविता ने हमेशा ही प्रेरणा दी है, शायद आपको भी पसंद आए;  


प्रेक्षण करना, सोचना,
चिंतन मनन करना,
श्रम से ख़ुशी पाना 
और अपने कार्य पर गर्व करना,
लोगों के लिए सुन्दरता 
और ख़ुशी की रचना करना 
और उसमें सुख पाना,
प्रकृति,संगीत और कला के सौंदर्य 
पर विमुग्ध होना 
और इस सौंदर्य से 
अपने आत्मिक जगत को समृद्ध बनाना,
लोगों के दुःख-सुख में 
हाथ बंटाना --

यही है 
चरित्र निर्माण का 
मेरा आदर्श 


अगले सप्ताह फिर से नवज्योति के स्थायी स्तम्भ के जरिये आपसे फिर मुलाक़ात होगी,  

आपका 
राहुल ......