Saturday, 26 January 2013

सब कुछ ठीक है




" हम यहाँ दुनिया को बदलने नहीं, अपने-आपको अभिव्यक्त करने आए है। "            -गोयथे 


आज अपनी बात कहने के लिए मुझे एक पुरानी फिल्म का दृश्य याद आ रहा है जिसमें हीरोईन अच्छे-खासे रोमांटिक मूड में हीरो से पूछती है, 'तुम्हें मेरे चेहरे पर क्या दिखाई देता है।' हीरो तपाक से जवाब देता है, 'हीमोग्लोबिन की कमी।' हीरो डॉक्टर था। तकरीबन हम सब की दृष्टी ऐसी ही तो है। हीरो है हम और हीरोईन है हमारी जिन्दगी। हम जिन्दगी को इसी दृष्टी से देखते है कि इसमें क्या कमी है और मैं इसे कैसे ठीक कर दूँ? हमें लगता है, यही तो मेरा काम है। बस, एक बार जिन्दगी के हर पहलू को अपने हिसाब से ठीक कर लें, फिर आराम से जियेंगे। हम लगे रहते है पर, वो दिन कभी आता नहीं और ऐसा कभी होता नहीं। हम सब कहीं न कहीं यह जानते भी है, फिर ऐसा क्यूँ करते है? 

प्राणी-मात्र की बड़ी जरुरत होती है औरों के द्वारा स्वीकार किया जाना और इसके लिए वह अपने आपको श्रेष्ठ सिद्ध करने की जुगत में लगा रहता है। हर संभव कोशिश में कि, उसके पास हर बात का जवाब है, अपने और अपनों पर आयी हर मुसीबत का हल उसके पास है और और अपने सामने आयी हर स्थिति को वह जीत सकता है। धीरे-धीरे जीतना और अपने आपको दूसरों से श्रेष्ठ सिद्ध करना हमारी लत पड़ जाती है। इसका प्रत्यक्ष छोटा-सा उदाहरण मोबाईल और कम्प्यूटर गेम्स है। बच्चों से लगाकर बड़ों तक इस लत के शिकार है। कारण है, ये दोनों ही 'मैं कर सकता हूँ' और 'जीतने' की भावना को पुष्ट करते है।

हमारी यही आदत हमें 'सब कुछ ठीक कर देने' के प्रयोजन में लगाए रखती है। ऑफिस हो या घर, दोनों ही जगह हमारा सुधार-आंदोलन चलता रहता है। सच तो यह है कि इससे संतुष्टि नहीं अहं की तुष्टि जरुर होती है।

हद तो तब हो जाती है जब हम रिश्तों को भी इसी तरह जीने लगते है। हम अपने रहने-जीने के तरीकों को ही सही मानते है और एक-दूसरे को वैसे ही रहने-जीने के लिए बाध्य करने लगते है। शायद इसीलिए हम सभी को एक ही शिकायत है कि हमें कोई समझता नहीं। हम भूल जाते है कि एक गुलदस्ते की सुन्दरता उसके अलग-अलग रंगों के फूल और पत्तियों के कारण ही है। मज़ा तो तब आयें, जब हम एक-दूसरे की मदद करने को तो तत्पर हों लेकिन अतिक्रमण कभी न करें।

हम सब यहाँ क्या करने आए थे और ये क्या करने लग गए? हमें अपना काम करना है, अपना किरदार निभाना है। यह जिन्दगी उस परमात्मा की है, पहली बात तो हमें वैसी ही मिली है जैसी हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ है, इसके बावजूद उसे ठीक करने की जरुरत है भी तो ये उसका काम है।

इस सबका मतलब आप यह मत निकाल लेना कि मैं व्यावहारिक जगत के दैनिक कार्यों या परिवार में एक-दूसरे की मदद से आँखें मूंद, आलसी और निर्मोही होने के लिए प्रेरित कर रहा हूँ। वे जरुरी भी है और हमारा कर्त्तव्य भी; बस आपको याद दिलाना चाहता हूँ कि ये सब एक सार्थक और सुन्दर जीवन में सहायक हो सकते है लेकिन यह जीवन नहीं है। जीवन है अपनी अन्तरात्मा की सुनना और वो जो कहे उसमें अपने आपको पूरी शिद्दत से झोंक देना। चिंता मत कीजिए, आगे बढिए, यहाँ सब कुछ ठीक है।


( रविवार, 20 जनवरी को नवज्योति मैं प्रकाशित)
आपका,
राहुल......... 

    


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