आज इस समय जब देश में सबसे अहम् मुददा भ्रष्टाचार बना हुआ है तब सबसे ज्यादा दुविधा में है तो वह है आम-आदमी। उसकी स्थिति बिल्कुल 'एक तरफ कुआँ और एक तरफ खाई' जैसी है। यहाँ तक कि वो ईमानदारी की परिभाषा को लेकर भी भ्रमित है। यह भी सच है कि भ्रष्ट कोई होना और कहलाना नहीं चाहता क्योंकि भ्रष्ट कोई पैदा नहीं होता। हमारी ही व्यवस्था के कुछ नियम-कानून इतने अव्यावहारिक और कुछ इतने अप्रासंगिक हो चले है कि उन्हें निभाते हुए एक आम-आदमी के लिए अपनी जिन्दगी की गाड़ी ढंग से चला पाना लोहे के चने चबाने से कम नहीं, खासतौर से वे नियम-कानून जो उसके जीविकोपार्जन से जुड़े है।
यही उसकी दुविधा है कि यदि वह नियमों की व्यावहारिक अवहेलना करता है तो भी वह बेईमानों की उस श्रेणी में शामिल हो जाता है जो अपने पद और अधिकारों का नाजायज फायदा उठा देश और समाज को खोखला कर रहे है तो उसके लिए अपने पारिवारिक और सामाजिक उत्तरदायित्वों को सम्मानपूर्वक निभा पाना संभव नहीं। अब हर किसी व्यक्ति का जिन्दगी के प्रति नजरिया एक समाज-सुधारक का हो यह न तो संभव है और न ही उचित, और फिर यह व्यक्ति का मौलिक अधिकार है कि वह स्वयं चुने कि वह अपनी जिन्दगी कैसे जिएगा?
सबसे पहले तो यह विचार करना होगा कि नियम-कानून बनाए ही क्यूँ जाते है? नियम-कानून देश और समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना और रक्षा के लिए बनाए जाते है ठीक उसी तरह जिस तरह माता-पिता अपने बच्चों में अच्छे संस्कारों के लिए घर में अनुशासन का वातावरण बनाते है। साफ़ जाहिर है कि नियम परक होने से ज्यादा अहम् है नीति-संगत होना। नीति-संगत वही है जिसके कर्म उसके प्राकृतिक गुणों यानी दया, प्रेम, करुणा और समानता के रंगों में रंगे हो या सीधे-सच्चे शब्दों में जो किसी का बुरा न चाहे। व्यक्ति कुछ भी करे तो उसे अपने हित के साथ यह भी ध्यान रहे कि इसमें किसी और का अहित तो नहीं। इस तरह नियमों को नैतिक मूल्यों के परिप्रेक्ष्य में समझते हुए हमें ईमानदारी की नई परिभाषा गढ़नी होगी। अपने जीवन में मूल्यों को नियमों के ऊपर रखना होगा। ईमानदार व्यक्ति वह है जिसका आचरण नीति-संगत है चाहे पूरी तरह नियम-परक न हो।
मैं अपने इस दृष्टिकोण के पक्ष में आपसे इतना पूछना चाहता हूँ की क्या नमक कानून तोड़ने वाले गाँधी से, गुलामी प्रथा का विरोध करने वाले अब्राहम लिंकन से और म्यांमार की सरकार को सरकार ही न मानने वाली आन सानं सू की से सद्चरित्र और ईमानदार भला कोई हो सकता है? लेकिन यह भी सच है कि हर व्यक्ति के लिए व्यवस्था के विरोध में खड़े हो पाना सम्भव नहीं इसलिए आपको एक बात विशेष रूप ध्यान रखनी होगी कि आप अपनी मान्यताओं का अनावश्यक प्रचार न करें। ऐसी मान्यताएँ जो नीति-संगत तो है लेकिन पूरी तरह नियम-परक नहीं वरना आप अपने और अपने परिवार के लिए मुसीबतें खड़ी कर लेंगे और आपका जीना दूभर हो जाएगा।
आपका जीवन मूल्यों पर आधारित हों और कर्म प्राकृतिक गुणों से रंगे। यदि आपका आचरण नीति-संगत है चाहे पूरी तरह नियम-परक नहीं तो भी आप शत-प्रतिशत ईमानदार है। कोई कारण नहीं बनता कि आप अपने मन में किसी तरह का ग्लानि-भाव रखें। ऐसा जीवन जी कर आप महापुरुषों के बताए रास्ते पर ही चल रहे होंगे।
( जैसा कि रविवार, 9 दिसम्बर को नवज्योति में प्रकाशित )
आपका
राहुल ........
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