Friday, 28 December 2012

उतावली नहीं तैयारी करें



हम सब अपने-अपने क्षेत्र में श्रेष्ठ एवम सफल होना चाहते हैं और क्यों न हो यही तो जीवन-पुरुषार्थ है। जीने का यही वो ज़ज्बा है जो आत्म-संतुष्टि भी देता है तो जीने को आसान भी बनाता है। यों कहने को हम सब अपने-अपने कामों में इतने व्यस्त है की हमें साँस तक लेने की फुर्सत नहीं, बावजूद इसके न तो हमारा काम हमारी सफलता की कहानी कहता है और न उसमें श्रेष्ठ होने की ललक दिखाई पड़ती है। येन-केन-प्रकारेण भौतिक सुविधाओं का संग्रह सफलता होती तो फिर सहज सरल जीवन और आत्म-संतुष्टि हमारी जिन्दगी से ऐसे गायब न होते जैसे गधे के सिर से सींग। 

जीवन की इस क्लिष्टता और मन के इस खालीपन की वजह जो मुझे नज़र आती है वह यह कि हमें अपने सफल होने की उतावली तो बहुत है पर उसकी तैयारी को हम तैयार नहीं। इसके लिए जिम्मेदार एक तरफ तो अहंकार का आवरण लिए हमारी अकर्मण्यता है तो दूसरी ओर अवचेतन में गहरी पैठी हुई मान्यताएँ और आखिर में काम को करने के तरीकों के प्रति हमारा नजरिया।

कोई भी बदलाव तकलीफदेह प्रक्रिया से गुजरे बिना सम्भव नहीं चाहे वह व्यक्ति का हो या स्थिति का। हम अपने सुरक्षा घेरे से बाहर निकल रास्ते की अडचनों से दो-दो हाथ करने से कतराते है और हमारा अहम् इसके लिए इन जुल्मों का सहारा लेता है जैसे, 'मुझे सब मालूम है', 'तक़दीर ही साथ नहीं देती' आदि-आदि। हमें इस छलावे से छुटकारा पाकर यह समझना होगा कि यदि काम हमारे मन का है तो छोटी-छोटी असफलताएँ ये नहीं बताती कि वो काम हम कर सकते है या नहीं या हमारे तक़दीर में है या नहीं बल्कि सिर्फ हमें चेताती है कि अभी हमें और तैयारी की जरुरत है। वास्तव में ये असफलताएँ नहीं रास्ते की अडचनें है जो हमें जीवन के वे पाठ पढ़ने आती है जिसके बिना सफल हो पाना मुमकिन नहीं।

सफल होने की राह का इससे भी बड़ा रोड़ा हमारी वो मान्यता है जो कहती है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता चाहे हम कुछ भी कर लें। इसकी तह तक जाने के लिए मैं आपके साथ एक छोटी सी घटना साझा करना चाहता हूँ। एक राहगीर एक गाँव गुजर रहा था। उसने गाँव ही के एक आदमी से पूछा कि उसे पास के गाँव तक पहुँचने में कितना समय लगेगा। वह कुछ न बोला। उसने वापस पूछा, तब भी वही बात। ऐसा दो-तीन बार हुआ। आखिर झुंझला  वह अपनी राह हो लिया। मुश्किल से दस कदम चला होगा कि पीछे से आवाज़ आई, 'दो घंटे लगेंगे'। राहगीर  उस ग्रामीण के पास वापस आकर पूछा,'मैं तुम्हें इतनी देर से यही बात पूछ रहा था, तब तो तुमने कोई जवाब नहीं दिया, अब क्यों बता रहे हो?' ग्रामीण बोला, 'जब तक मैं तुम्हारी चाल नहीं देख लेता, कैसे बताता कि कितना  लगेगा।' यदि उस राहगीर को जल्दी पहुँचना है तो अपनी बढानी होगी। यदि समय की गणना हम दिन-महिनों-वर्षों से नहीं बल्कि तैयारी से करें तो यह बात सोलह आने सच है कि समय से पहले कुछ नहीं मिलता। अपनी तैयारियों को दुरुस्त कीजिए, समय आपकी मुट्ठी में होगा।

हमारी उतावली तब भी झलकती है जब हम कह  होते है कि 'किसी भी तरह मुझे वह करना है'। कोई भी काम कभी किसी तरह नहीं होता सिर्फ और सिर्फ एक तरह से ही हो सकता है। किसी भी काम को गलत करने के हज़ार तरीके हो सकते है, सही करने का सिर्फ एक तरीका होता है। सही तरीका हमेशा लम्बा,  मेहनत भरा और थकाऊ होता है पर इस कीमत को चुकाए बिना श्रेष्ठ एवम सफल हो पाना संभव नहीं।

अपने-अपने क्षेत्रों में श्रेष्ठ होने की ललक ही आपको सच्चे अर्थों में सफल बनाएगी क्योंकि ये सफलता, सहज-सरल जीवन और आत्म-संतुष्टि के साथ आएगी। यदि सफलता को जिन्दगी का स्थायी रस बनाना है तो उतावली नहीं तैयारी करें।


(रविवार, 23 दिसम्बर को दैनिक नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल ..........        

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