जिन्दगी है, परिवार है तो आवश्यकताएँ भी है और आवश्यकताएँ है तो उन्हें पूरा करने के लिए धन की जरुरत है और उसके लिए किसी ऐसे काम में होना जरुरी है जो हमें जरुरत का धन दिला सके इसलिए हम अपने जीवन में कौन सा काम करें इसका पैमाना उससे मिलने वाला धन होता है। ठीक लगता है लेकिन ये तर्क क्या सचमुच उतना ठीक है जितना लगता है? ठीक लगता है लेकिन ये तर्क क्या सचमुच उतना ठीक है जितना लगता है? दिल की सुनें, अपने सपनों को जिएँ .............ये सब क्या कहने-सुनने की बातें है?
इस कड़ी को थोडा आगे बढ़ाते है। कौन-सा काम हमें कितना धन दिलाएगा ये हम कैसे तय करते है? निश्चित रूप से, औरों को देखकर। फलाँ व्यक्ति ने फलाँ काम कर कितना पैसा कमाया। मुझे लगता है बाकी बातें तो अपनी जगह ठीक है पर बस इस आखिरी पायदान पर आकर हमसे गलती हो जाती है। आपकी समृद्धि सिर्फ और सिर्फ उसी काम से संभव है जो आपके लिए बना है। हो सकता है जिस व्यक्ति की सफलता और समृद्धि को देखकर आप काम चुन रहे हों वो उसके लिए बना हो, आपके लिए नहीं। निस्संदेह आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए धन की अनिवार्यता को नकारा नहीं जा सकता लेकिन इससे अधिक की तृष्णा वह भी यह सोचकर कि यह जीवन मैं खुशियाँ लाएगा, बिल्कुल बेतुकी है। खुश रहना व्यक्ति का आत्मिक भाव है इसका धन या किसी और बाहरी परिस्थिति से कोई लेना-देना नहीं। तो धूम-फिरकर प्रश्न फिर वहीँ आकर ठहर गया कि हम कौन सा काम चुनें?
खलील जिब्रान कहते है, " बाँसुरी बन कर काम करें जिसके हृदय से घंटों फूँकने का जतन संगीत बनकर निकलता है। जिन्दगी का गूढ़ रहस्य है उसे मेहनत के जरिए प्यार करना। आपका काम आपके आत्मिक प्रेम का इजहार हो, यही संतुष्टि देगा।"
आप अपने जीवन में वो काम करें जिसकी आप बाँसुरी है और फिर एक दिन आपका काम स्वयं संगीत की तरह बोलने लगेगा। हर व्यक्ति हर काम की बाँसुरी नहीं होता। आप उस काम को चुनें जो आपको बजाकर उसमें से संगीत निकाल दें। जिसे आप रियाज की तरह कर सकें, जहाँ न समय का भान हो न भूख का और न ही परिणामों की कोई चिंता, बस इच्छा हो तो सिर्फ मीठी तान की। यही जीवन में खुशियाँ लाएगा, यही संतुष्टि देगा। दूसरी ओर, यदि भीतर झाँकें यानी आत्म का अध्ययन करें यानी अध्यात्म की नज़र से देखें तो पाएँगे कि व्यक्ति का सार-तत्त्व, उसकी मूल-प्रकृति है -- विशुद्ध प्रेम। कोई भी व्यक्ति या तो प्रेममय है और यदि किसी और स्थिति में है तो चाह प्रेम की ही है और यही सबूत है 'विशुद्ध प्रेम' के प्रकृति होने का अतः स्वाभाविक और आवश्यक है कि हमारा काम हमारे प्रेम का इजहार हो। जब ऐसा होगा तब हम अपने काम में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ होंगे।
व्यक्ति के साथ उसके काम का जन्म होता है इसलिए आपकी जिन्दगी की आवश्यकताएँ उतनी ही होती है जो उस काम से पूरी हो सकें या यों कह लें कि आपके काम में हमेशा ही उतनी क्षमता होती है कि वो उन्हें पूरा कर सकें। हाँ इतना जरुर है, व्यक्ति को ये स्वयं ही ढूँढना होता है कि वो किस तरह अपने पसंद के काम को अपने जीविकोपार्जन का साधन बना सकता है और यही व्यक्ति का सच्चा पुरुषार्थ है। आपकी बाँसुरी को सुनने वाले आप ही को ढूँढने होंगे।
(जैसा कि रविवार, 25 नवम्बर को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका,
राहुल........
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