हम क्षण भर ठहर कर अपने चारों ओर बिखरी खुबसूरत प्रकृति पर नज़र डालें तो एक गुण जो प्रकृति के हर घटक में स्पष्ट नज़र आएगा वो है संतुलन. सूर्य पूर्व में उदय होने के लिए पश्चिम में अस्त होता है, अमावस से पूर्णिमा तक पहुँचने चाँद लयात्मक कलाएं करता है और पतझड़ वसंत के लिए होता है.
फिर ये हमारी जिन्दगी में भेंगापन क्यूँ ? क्यूँ हम देखते कुछ और है और हमारी नज़रें कंही और है ? हम जाना दिल्ली चाहते है ट्रेन बम्बई कि पकड़ते है.
हर व्यक्ति के मन में एक तड़प होती है कि वो अपने जीवन को कैसे गुजरेगा. मन को पता होता है कि उसके लिए क्या सही है और क्या गलत पर मन के पास तर्क नहीं होते और ये तड़प दुनिया के सफलता के मानदंडो में कहीं दब कर रह जाती है.
हम अपनी रोजमर्रा कि जिन्दगी पर नज़र डालें तो पाएंगे कि हमारे दैनिक कामों और जैसी जिन्दगी हम जीना चाहते है के बीच कोई संतुलन नहीं है. दिन - दिन मिलकर ही तो जीवन बनता है. हमारे दैनिक काम ऐसे होने चाहिए जो हमें उस जीवन कि ओर ले जाएँ.
जीवन में इस संतुलन के लिए हमें स्वयं को अपने ही मूल गुणधर्म को वापस याद दिलाना होगा और वह है 'हम जैसा सोचते है वैसा पाते है, चाहे हम चाहें या न चाहें'.
हमारे विचार उर्जा-पुंज होते है और वे समान तरंगीय क्षमताओं कि उर्जा को ही अपनी ओर आकर्षित करते है इसलिए हमें अपनी वैचारिक शक्ति को हमारे सपनो से एकरूप करना होगा. हम अपना ध्यान जैसा जीवन चाहते है उस पर केन्द्रित करें न कि रास्ते में आने वाली मुश्किलों पर. हमारी मानसिक द्रढ़ता मुश्किलों का हल स्वतः ढूंढ़ लेगी.
हमे रोज पग-पग अपने इच्छित जीवन कि ओर बढ़ना होगा. रोजमर्रा में क्या करें और क्या न करें इसके निर्णय का आधार इसे ही बनाना होगा.
हमारे जीने का अंदाज ही हमारा परिचय हो.
आपकी अद्वितीयता को अभिवादन के साथ.
आपका
राहुल......
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