सुग्रीव के बड़े भाई, किष्किन्धा नरेश बाली; कहते हैं वे जब लड़ते थे तब सामने वाले की शक्ति आधी रह जाती थी और यही वजह थी कि सँसार में सामने आकर उसे हराना नामुमकिन था। शायद उसे कोई वरदान प्राप्त था! यही आप और मैं सुनते-पढ़ते आए हैं।
एक बारगी तो ये बात धार्मिक-पौराणिक लगती है लेकिन जब मैंने इसे उलट कर देखा तब मुझे तो ये सफलता का महत्वपूर्ण सूत्र नजर आया। इसे उलटेंगे तो बात कुछ यूँ होगी कि, बाली हार ही नहीं सकता था क्योंकि वो लड़ता ही ऐसे था कि सामने वाले कि शक्ति आधी रह जाती थी। उसे अपनी जीत में कभी कोई सन्देह नजर नहीं आता यानि उसका हर प्रहार, हर बचाव आत्म-विश्वास से भरा होता। और यही आत्म-विश्वास उसकी शक्ति को दोगुना कर देता या यों कह लीजिए कि दुश्मन की शक्ति को आधा कर देता।
लड़ने के हजारों तरीके हो सकते होंगे लेकिन लड़ाई में जीतने का एक यही तरीका होता है। तो, काम करने के भी हजारों तरीके हो सकते हैं लेकिन अपना सर्वश्रेष्ठ कर पाने का यही एकमात्र तरीका है कि आप जो कुछ भी करें वो पूरे आत्म-विश्वास के साथ करें।
ये सब सोचते हुए लगा कि तपस्या के बदले मिलने वाले वरदान जिनसे हमारी पौराणिक कथायें भरी पड़ी है, से मतलब यही रहा होगा कि व्यक्ति अपने गुणों पर इतना काम कर ले कि वो उसमें दक्ष हो जाए और वो दक्षता उसके व्यक्तित्व का हिस्सा।
तो बात फिर पहुँची यहाँ कि ये आत्म-विश्वास आए कैसे और बना कैसे रहे? कैसे किसी भी परिस्थिति में कोई भी ये सोच पाए कि, 'कोई बात नहीं! मैं कर लूँगा।'
जवाब हमेशा प्रश्नों की ओट में छिपे रहते हैं, इसका भी था। और जब बाहर खींचा तब मालूम चला कि बात सिर्फ इतनी सी है कि हम अपने दैनिक जीवन में छोटी-छोटी नयी जिम्मेदारियाँ उठाना शुरू करें। अपने 'कम्फर्ट जोन' से बाहर निकलें। थोड़ा-थोड़ा करके उन कामों को अपने हाथ में लें जो आपकी जिन्दगी का हिस्सा हैं, आपके लिए जरुरी हैं लेकिन जिनको लेकर आपके मन में सन्देह है कि मैं उनको कर पाऊँगा या नहीं। जिनके लिए आप हमेशा ही किसी और पर निर्भर हैं।
धीरे-धीरे ये छोटी-छोटी जिम्मेदारियाँ आपको आत्म निर्भर बनाती चली जाएँगी और आपको अहसास होगा कि वो बस आपके मन की हिचक थी। आप 'मैं कर सकता हूँ' के आनन्द से भर उठेंगे। ये आनन्द आपको अपने घेरे से और बाहर निकलने की शक्ति और प्रेरणा देगा और बस फिर क्या, आत्म-विश्वास की रेलगाड़ी चल निकलेगी।
और तब आपको हराना यानि किसी परिस्थिति का आप पर हावी हो जाना मुश्किल होगा।
तो, जो मैं समझा वो ये कि हमें अपने लिए ऐसी जिन्दगी चुननी होगी जिसके सारे काम हम कर सकते हों फिर उन्हें चाहे हम करें न करें। साधनों का उपयोग तब सुविधा होगा आश्रितता नहीं। सुविधाएँ जिन्दगी को आसान बनाती है और आश्रितता कमजोर। यही क्रोध और नाराजगी का कारण बनती है। इसके लिए जरुरी है कि हम समय-समय पर अपनी जीवन-शैली को छानते रहें, उन आदतों को निकालते रहें जो हमें आश्रित बनाती हैं। साथ ही छोटी-छोटी जिम्मेदारियों से अपनी काबिलियत को बढ़ाते रहें और तब बेहिचक उन सुविधाओं का भी आनन्द उठाएँ। इस तरह हमारी जिन्दगी आसान से और आसान होती चली जाएगी।
दैनिक नवज्योति, 12 अगस्त 2018
मासिक स्तम्भ - 'जो मैं समझा'
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