हम सब पुराने मित्र बहुत सालों बाद एक शादी में मिले। हम अपनी यादों को ताज़ा भी कर रहे थे और सभी आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी से भरे हुए भी थे, ये देखकर कि हम सब अपनी-अपनी जिन्दगी में कहाँ-कहाँ पहुँच गए। हमारा एक मित्र हम सभी को लुभा रहा था, ऐसा लगता था कि वो बिल्कुल नहीं बदला। उसके बात करने का अंदाज़, उसकी भाव-भंगिमाएँ, सभी कुछ कॉलेज के दिनों की याद दिला रही थी लेकिन थोड़ी ही देर बाद उसकी बातों से सभी को उकताहट होने लगी। खुद ही को अच्छा नहीं लग रहा था कि मुझे ऐसा क्यों हो रहा है? आखिरकार दो दिनों बाद हम अपनी-अपनी जगहों को लौट गए। मैं भी लौट आया लेकिन मन में एक दुःख भरा सवाल लिए।
सवाल होता है तो उसका जवाब भी होता है बस उसे ढूँढना पड़ता है और जो मुझे मिला वह यह था कि मेरे उस दोस्त की बातों का मर्म भी वही था। शायद हम सब को ऐसा लग रहा था जैसे हम कॉलेज के ही किसी लड़के से बात कर रहे है। जैसे उसने अपनी मानसिकता को रोक लिया था, बाँध लिया था। जैसे उसने अपनी उन दिनों की सोच को ही अपना परिचय बना लिया था। इन सारे विचारों से यह सूत्र निकला कि जिस तरह कमरे की घुटन मिटानी हो तो कमरे की खिड़कियाँ खोलनी पड़ेंगी, उसी तरह खिले हुए व्यक्तित्व के लिए अपने दिल और दिमाग के दरवाजे खुले रखने होंगे।
आपको याद है दूसरी कक्षा में जब हमने पहली बार जोड़ लगाना सीखा था तब हम कैसे लगाते थे? जिसको जिससे जोड़ना होता, उतनी ही लाइनें बनाते और फिर उन्हें गिनते। वो सीखने का तरीका था जो हमारी उम्र के लिहाज से बिल्कुल ठीक भी था। धीरे-धीरे हमने अभ्यास किया फिर 'हासिल' लिखने लगे और फिर सीधे ही जोड़ने लगे। व्यक्ति को हर क्षण अपने आपको मांजने की कोशिश करनी चाहिए। जो कल का सच था वो आज का सच नहीं हो सकता। कोई भी साधन साध्य तक पहुँचने का जरिया भर होता है। पहली पायदान चाहे कितनी भी सुंदर हो उसकी उपयोगिता दूसरी पायदान पर पहुँचने तक ही सीमित होती है।
जिन्दगी से अच्छी कोई पाठशाला नहीं बशर्ते हम कक्षा में उपस्थित रहें। व्यक्तित्व निर्माण की पहली सीढ़ी है कि हम जिन्दगी के अनुभवों का प्रेक्षण करें, सोचें और चिंतन-मनन करें। ऐसा कर हम उन अनुभवों में छिपी सीख को जाने और आगे बढ़ जाएँ। नए विचारों को प्रवेश की अनुमति दें, उन्हें जानें और अपने परिप्रेक्ष्य में देखें-समझें फिर यदि ठीक लगे तो उन्हें आत्मसात करें; यही है अपने दिल और दिमाग के दरवाज़ों को खुला रखना।
इस सारे सन्दर्भ में मुझे महात्मा बुद्ध का वो सावधान करने वाला कथन याद आता है, "यदि कोई विचार सावधानीपूर्वक अन्वेषण के बाद उपयोगी लगता है और उसमें सभी का भला निहित है तब ही उसे स्वीकारें एवम अपनाएँ।" कोई भी विचार नया है सिर्फ इससे वह अपनाने लायक नहीं हो जाता। यदि वो जीवन के कारणों को संतुष्ट करता है याने उपयोगी है और जिसको अपनाने से कोई आहत न हो उसे ही थामे अन्यथा जैसे वह आया था वैसे ही उसे जाने दें।
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