-राहुल हेमराज
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अणुव्रत अधिवेशन, दिल्ली में 13 नवम्बर 2005 को सम्बोधित करते हुए यही कहावत और उसकी दंतकथा सुनाई थी। दो किसान थे। वे अपनी भैसों को बेचने के लिए पशु मेले में ले जा रहे थे। दोनों ही भैसों का प्रसव काल नजदीक था। रास्ते में रात्रि विश्राम के लिए वे एक जगह रुके। एक किसान तो चिंता में रात भर जागता रहा लेकिन दूसरा कुछ ही देर बाद सो गया। मध्य रात्रि पश्चात् दोनों ही भैसों को प्रसव हुआ। जो सो रहा था उसकी भैंस ने पाड़ी को जन्म दिया और जो जाग रहा था उसकी भैंस ने पाड़े को। ऐसा मौका भला कोई जागने वाला कैसे चूकता, उसने पाडा-पाड़ी बदल दिए। रात भर बेफिक्री की नींद सोने वाले किसान ने जब अल-सुबह जागने वाले से पूछा कि उसकी भैंस ने किसे जन्म दिया है तो यही जवाब मिला, 'सूत्या के तो पाड़ा ही जणै।'
अणुव्रत हमें जगाता है। हमें जिम्मेदार बनाता है। नहीं तो, हमारी तो जैसे आदत ही पड गई है जीवन की छोटी से छोटी बात के लिए व्यवस्था को दोषी ठहराने की। क्या कभी हमने एक मिनट के लिए भी यह जानने-समझने की कोशिश की है कि इस व्यवस्था में मेरा स्थान क्या है? क्या मेरा व्यवहार अपेक्षित है? क्या मैं अपने दायित्वों का उचित निर्वाह कर रहा हूँ? इन प्रश्नों का मर्म समझते हुए भी हम यह कहकर अपने आपको फ़ारिग कर लेते है कि कोई भी तो वैसा नहीं कर रहा।
हमारा ये स्वभाव ही इस आन्दोलन की पृष्ठभूमि है। अणुओं जैसी ये छोटी-छोटी प्रतिज्ञाएँ अपने दायित्वों को निभाने की प्रतिबद्धता के अलावा क्या है? सच मानिए, अपने लिए बिना दायित्वों का निर्वाह किए सुन्दर जीवन की इच्छा रखना ठीक वैसा ही है जैसे बिना खाद-पानी दिए सुन्दर और सुगन्धित फूलों की चाह रखना। एक-एक सुन्दर जीवन ही तो एक खुशहाल परिवार,एक स्वस्थ समाज और अन्ततः सुदृढ़ राष्ट्र में तब्दील होता है। अणुव्रत इसी की नींव बनता है।
सत्य शाश्वत होता है और किसी भी जगह पहुँचने का सही मार्ग भी हमेशा एक ही होता है। शायद यही कारण रहा होगा इस अनूठे संयोग का कि हमारे संविधान में भी एक नागरिक के लिए ग्यारह कर्तव्यों की प्रेरणा है तो अणुव्रत भी ग्यारह आचारों से प्रतिबद्ध होने की बात करता है। किसी भी राष्ट्र का संविधान वहाँ की शासकीय व्यवस्था का आधार होता है। एक सुदृढ़ लोकतन्त्र के लिए नागरिक कर्तव्यों का उल्लेख करते हुए हमारा संविधान धर्म,भाषा,प्रदेश या वर्ग से परे भ्रातृत्व भावना की बात करता है, प्राणी-मात्र के प्रति दया भाव,वन्य-जीवों एवं नदियों की रक्षा की जरुरत और शिक्षित समाज की हमसे उम्मीद करता है, हमें सार्वजनिक सम्पत्ति को सुरक्षित रखने और हिंसा से दूर रहने को कहता है, वैज्ञानिक दृष्टिकोण,मानववाद और व्यक्ति के सुधार की बात करता है; यही बातें तो अणुव्रत भी करता है। अणुव्रत ही धारण करने योग्य है जो धर्म से परे है। शायद ही विश्व में ऐसा कोई दूसरा आन्दोलन हो जिसका प्रणेता एक धार्मिक गुरु हो लेकिन जिससे जुड़ने के लिए आपको अपने गुरु, अपने धर्म को छोड़ने की जरुरत नहीं। यही विशेष बात अणुव्रत आन्दोलन को और किसी भी धार्मिक आन्दोलन से अलग करती है और व्यक्ति को राष्ट्र निर्माण से जोडती है। आप चाहे जिस भी धर्म से हों, चाहे जिसे अपना गुरु मानते हों, आप अणुव्रती हो सकते है। आपको जैन होना तो छोड़िए आचार्य श्री को भी अपना गुरु स्वीकार करने की दरकार नहीं। कर्त्तव्य-पालना और धर्म-निरपेक्षता यही दो बातें तो है जो एक सफल लोकतन्त्र की प्राण-वायु है। इन्हीं दोनों की बात हमारा संविधान नागरिक कर्तव्यों में करता है तो अणुव्रत अपने आचारों में।
आज जिन बातों के लिए हम व्यवस्था को दोषी ठहराते है उनका जन्म हमारी अपने नागरिक कर्तव्यों की अनदेखी से ही तो हुआ है। हमारे संविधान निर्मातों ने इसे हमारे विवेक पर छोड़ दिया था और हमने इसका भरपूर नाजायज फायदा उठाया। वर्तमान का ये परिदृश्य अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होकर ही बदल सकता है, एक-दूसरे को दोषी ठहराकर हम कब तक अपना और राष्ट्र का समय बर्बाद करते रहेंगे। स्वामी विवेकानन्द ने ठीक ही कहा है, " सभी सामाजिक राजनीतिक व्यवस्थाएँ व्यक्ति की गुणवत्ता पर निर्भर करती है। कोई राष्ट्र अपनी संसद द्वारा बनाए कानूनों के कारण नहीं वरन अपने नागरिकों की गुणवत्ता के आधार पर महान और श्रेष्ठ होता है। "
यही कारण है कि अणुव्रत की प्रासंगिकता और अधिक बढ़ जाती है। हमें अपने कर्तव्यों के प्रति प्रतिबद्ध तो होना ही होगा, समय कब तक हमारा इंतजार करेगा। यदि अब भी हम नहीं जागे तो एक बात ध्यान रखना, कहीं समय से ये न सुनना पड़े कि 'सूत्या के तो पाड़ो ही जणै।'
(अणुव्रत मासिक के दिसम्बर अंक में प्रकाशित)
(शीर्षक-जागने की वेला है, सोते न रहें)
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