आज हर कोई व्यक्ति भीड़ में अकेला नज़र आता है; डरा हुआ, सहमा हुआ। ख़ुशी है तो बाँटे किसके साथ और दुखी है तो सम्बल कौन दे? बस, हर बार बिखरे हुए स्वयं को इकट्ठा करके आगे चलता हुआ, हर क्षण अपने अकेलेपन से जुझता हुआ। मुझे लगता है अकेलेपन से बड़ा कोई श्राप नहीं। व्यक्ति में आ सकने वाली सारी शारीरिक बीमारियों और मानसिक कमजोरियों की जड़ है उसका अकेलापन। यदि हम सब एकाकी महसूस करते है तो फिर एक-दूसरे का हाथ क्यों नहीं थाम लेते? स्वाभाविक है यहाँ इस प्रश्न का उठना, पर ये भी सत्य है कि हम ऐसा नहीं कर पा रहे है? क्या वजह हो सकती है? व्यक्ति इतना संकीर्ण कैसे हो गया?
'डर'- एकमात्र वजह है और यह डर देन है हमारे सामाजिक वातावरण की, उन मूल्यों की जिस पर हमारी सामाजिक व्यवस्था टिकी है। आज व्यक्ति डरा हुआ है अपने और अपने परिवार की सुरक्षा को लेकर, पग-पग पर व्याप्त गला-काट प्रतिस्पर्धा को लेकर, बच्चों के भविष्य और उसके लिए आवश्यक धन को लेकर, जीवन के संध्याकाल के सुकून से गुजर पाने को लेकर और ऐसी ना मालूम कितनी चिंताएँ। साधारण सी बात है जब व्यक्ति डरा हुआ होता है तब उसे अपने अलावा किसी का ख्याल नहीं आता। फ़र्ज़ कीजिए, आप किसी जंगल से गुजर रहे है और आपके सामने शेर आकर खड़ा हो गया, ऐसे समय आपको क्या किसी को भी अपनी जान बचाने के अलावा कुछ और याद नहीं आएगा। बस, ये डर ही है जिसने हमको इतना संकीर्ण बना दिया है।
डर ने व्यक्ति को संकीर्ण बना दिया और व्यक्ति ने अपनी चिंताओं का उपाय पैसे में ढूंढ़ लिया। उसने अपने आपको बचाने के लिए अपने चारों ओर पैसे की चारदीवारी खींच ली और व्यक्ति, व्यक्ति से कटता गया। पैसे की दौड़ में हम एक-दूसरे के डर को ही तो भुना रहे है और एक-दूसरे के जीवन में चिंताएँ पैदा कर रहे है। हमारे यही सामाजिक मूल्य हमारे अकेलेपन की वजह है।
जिन मूल्यों में आप विश्वास नहीं करते उन्हें क्यूँ समाज से उधार लें? इसका मतलब यह भी नहीं कि आप बिला वजह विरोध करें जैसे किसी दिन आप बिना कपड़ों के ही घर से निकलने की सोचने लगें। सामाजिक मर्यादाओं का पालन करना ओर बात है और जीवन मूल्यों का चुनाव और बात। आप किस तरह जिएँगे, ये आप और सिर्फ आप तय करेंगे। आप किन बातों को अपने जीवन में तरजीह देंगे इसका फैसला सिर्फ आप करेंगे, न कि समाज और रीती-रिवाज।
आप जब ऐसा करने लगेंगे तो स्वतः ही आप जिन्दगी में ऐसे लोगों को उपस्थित पाएँगे जिनके जीवन-मूल्य आपसे मेल खाते हों। हाँ, इतना अवश्य है कि हाथ आपको बढ़ाना होगा। धीरे-धीरे आपके चारों ओर अपना एक संसार बनने लगेगा। ऐसा संसार जिसमें लोग आपके दुःख-सुख बाँटने को आतुर होंगे। जिन्दगी की मुश्किल घड़ियों में, जब आप थक हुआ महसूस कर रहे होंगे, वे घने वृक्ष की तरह छाया तो देंगे ही, जरुरत पड़ी तो देर के लिए आपका सामान भी उठा लेंगे। ऐसे मित्रों के जीवन को आसन बनाने के लिए आप भी हमेशा तत्पर होंगे क्योंकि आप एक-दूसरे को बखूबी समझते है। आप के रिश्ते समान जीवन-मूल्यों की डोर से बंधे है। एक-दूसरे पर ये भरोसा ही आपको सच्ची ख़ुशी देगा। आप संकीर्णताओं के केंचुल से मुक्त हो जिंदादिल जिन्दगी जी पाएँगे। जीवन एक उत्सव होगा।
तो आइए, कहीं ओर निवेश करने की बजाए इंसानों में निवेश करें, अपने संसार की रचना स्वयं करें।
(नवज्योति में रविवार, 24 फरवरी को प्रकाशित)
आपका
राहुल..........
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