जब मैंने स्कूल जाना शुरू किया तब अंग्रेजी छठी कक्षा से शुरू होती थी. उन सालों पिताजी अंग्रेजी घर पर पढाया करते थे. नए शब्दों को लिखने और बोलने में सहजता रहे इसलिए उन्होंने मुझे रोमन इंग्लिश का जमकर अभ्यास करवाया. रोमन इंग्लिश यानि ढ को डीएच व ख को केएच लिखना. उस समय बड़ी कोफ़्त आती थी और लगता था कि इस सब का इतना अभ्यास अनावश्यक है. समय के साथ बात आई-गई हो गई. अभी साल भर पहले जब मैंने अपने लिखने कि शुरुआत कम्प्यूटर पर ब्लॉग लिखने से कि तब हिंदी टाइपिंग ना आना रह का रोड़ा बनी हुई थी. काफी कोशिशों के बाद मुझे एक सॉफ्टवेयर मिला जो रोमन इंग्लिश को टाइप करने पर हिंदी में लिखता था. उस दिन में पिताजी के करवाए उस अभ्यास को याद कर रहा था जिसकी बदौलत लिखना शुरू कर पाया और आज इस स्तम्भ के जरिए आपसे बात कर पा रहा हूँ.
जीवन का कोई अनुभव निरर्थक और निरुद्देश्य नहीं होता. हो सकता है किसी काम को करते समय हमें वह मज़बूरी या समय कि बरबादी लगे लेकिन सच तो यह है कि प्रकृति हमें अपने तरीके से भविष्य के लिए तैयार कर रही होती है. जो काम आज हमारे हाथ में है उसे अच्छे से अच्छा करने कि कोशिश करें क्योंकि हमें नहीं मालूम यह अनुभव कल हमारे किस काम आएगा.
तितली का जीवन-चक्र इसका जीता-जागता उदाहरण है. एक केटेपिलर को केकून बनते समय इस बात का अंदाजा नहीं होता कि इसका फल तितली बन पाना है लेकिन वह पूरे समर्पण भाव से केकून होना स्वीकार कर लेता है और समर्पण का यही भाव एक सुन्दर तितली को जन्म देता है.
जीवन का कोई अनुभव निरर्थक और निरुद्देश्य नहीं होता. हो सकता है किसी काम को करते समय हमें वह मज़बूरी या समय कि बरबादी लगे लेकिन सच तो यह है कि प्रकृति हमें अपने तरीके से भविष्य के लिए तैयार कर रही होती है. जो काम आज हमारे हाथ में है उसे अच्छे से अच्छा करने कि कोशिश करें क्योंकि हमें नहीं मालूम यह अनुभव कल हमारे किस काम आएगा.
तितली का जीवन-चक्र इसका जीता-जागता उदाहरण है. एक केटेपिलर को केकून बनते समय इस बात का अंदाजा नहीं होता कि इसका फल तितली बन पाना है लेकिन वह पूरे समर्पण भाव से केकून होना स्वीकार कर लेता है और समर्पण का यही भाव एक सुन्दर तितली को जन्म देता है.
यह बात उन मुश्किलों, रुकावटों और दुखों पर भी लागू होती है जिन पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं होता. ये वास्तव में प्रकृति के ट्रेनिंग केम्प है जहाँ वह हमें भविष्य के लिए तैयार कर रही होती है इसलिए इनसे भागने या टालने में हमारा ही अहित है.
दुःख के क्षण किसके जीवन में नहीं आते चाहे वह गंभीर बीमारी हो, आर्थिक नुकसान या फिर रिश्तों में दरार लेकिन ऐसे समय हमें एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि हम भी प्रकृति का एक हिस्सा है और प्रकृति के जीवन में दुर्घटनाओं का कोई स्थान नहीं. प्रकृति संतुलन का पर्याय है और प्रकृति कि नज़र से देखें तो जो कुछ भी घटता है उसे वैसे ही घटना होता है. हम सब ने अपने-अपने जीवन में कई बार महसूस किया है कि जिन बातों पर हम आज शोक मना रहे होते है वे ही कुछ सालों बाद हमें वरदान लगने लगती है. हमने एक दूसरे को यह कहते खूब सुना है कि उस दिन मेरे साथ वह नहीं हुआ होता तो में आज यहाँ नहीं होता.
सच पूछो तो शोक मनाना हमारा परम्परागत आचरण है क्योंकि यह अहम् कि पसंद है. सब का ध्यान अपनी और आकर्षित कर पाना, लोगों से सहानुभूति पाना, अपनी कमियों को दूसरों कि नज़र में सही ठहरा पाना इसके अतिरिक्त लाभ है लेकिन इसकी कीमत चुकानी पड़ती है अपनी मानसिक शान्ति, आत्मिक सुख और व्यक्तिगत विकास को खोकर. अब आप ही बताइए या सौदा लाभ का है या हानि का? इसका मतलब यह नहीं कि हम अपनी भावनाओं का सम्मान ना करें और असंवेदनशील हो जाएँ. दुःख को दुःख और सुख को सुख महसूस करना ही तो सच्ची अनुभूति और अभिव्यक्ति का आधार है लेकिन दुःख को शोक में बदल लम्बे समय तक उसे मनाते रहना और अपना पर्याय बना लेना स्वेच्छा का विषय है.
जीवन के अनुभव या तो आनंद मनाने के लिए होते है या सीखने के लिए अतः समर्पण भाव से सम्पूर्णता के साथ इन अनुभवों को जीकर ही जीवन को सार्थक और सोद्देश्य बनाया जा सकता है.
(रविवार, ३ जून को नवज्योति में प्रकाशित)
आपका
राहुल......
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