जिस दिन हमारा मन ठीक होता है उस दिन सारे कम कम प्रयासों में भी समय पर होने लगते है. वे लोग भी अनायास मिल जाते है जिन्हें ढूंढ़ पाना और मिल पाना पिछले काफी समय से मुश्किल हो रहा था. यहाँ तक कि उस दिन ट्रैफिक भी कम मिलता है, सिग्नल भी खुले और पार्किंग भी आसानी से.
क्या आपने कभी गौर किया है ऐसा क्यूँ होता है?
हमारा मन विचारों से बनता है. हमारे विचार उर्जा - पुंज होते है जिनकी अपनी तरंगीय आवृतियाँ (वाइबरेशनल फ्रिक्वेन्सी) होती है. भौतिकी के अनुसार समान तरंगीय आवृतियाँ ही एक दूसरे के प्रति आकर्षित होती है. यही कारण है कि हमारी दुनिया भी वैसी ही होती है जैसी हमारी सोच होती है.हम अपने जीवन में उन व्यक्तियों, घटनाओं और स्थितियों यहाँ तक कि वस्तुओं को ही अपनी और आकर्षित करते है जो हमारे वैचारिक स्तर से मेल खाती है. दूसरे शब्दों में, हमारे आस - पास कि दुनिया हमारे विचारों का ही प्रतिबिम्ब होती है.
जब कभी हम व्यक्ति, घटना या स्थिति से नाखुश होते है तो अधिकांशतः उनमें अपनी ही किसी कमजोरी का प्रतिबिम्ब देख रहे होते है. हमारा अहम् हमारी कमजोरियों को दूसरे पर लाद देता है हर बात में अपने आपको बेहतर सिद्ध करना ही अहम् कि प्राण - वायु है. इस तरह हम अपने को सही सिद्ध करने के लिए अपनों से तर्क - वितर्को में उलझ रिश्तों में कडवाहट भर लेते है. क्रोध इसीलिए हमारी कमजोरी होता है. यदि हम पूरी ईमानदारी से सूची बनाएँ कि हमें दूसरों में क्या - क्या अच्छा लगता है और क्या - क्या बुरा तो पाएंगे कि जो - जो हमें बुरा लगता है अधिकांशतः वे हमारी ही कमज़ोरियाँ है. ऐसी कमज़ोरियाँ जिन्हें हम इतना नापसंद करते है कि उनका हममें होना हम स्वीकार नहीं कर पाते और इसलिए दूसरों पर लाद देते है.
इसका कतई यह मतलब नहीं है कि हर बात के लिए स्वयं को दोषी ठहरा अपने आपको ग्लानी से भर लें. हमेशा दूसरों कि गलतियों को नजर अंदाज कर स्वयं को दोषी ठहराना तो उस ईश्वरीय भेंट का अपमान करना होगा जो हमें अच्छे - बुरे के भेद कर पाने कि समझ के रूप में मिली है. तो फिर यह पकड़ में कैसे आए कि कहाँ हमें अपने विचारों को संभालना है और कहाँ दूसरों से दूरी बना लेनी है?
इसके लिए थोडा निष्ठुर हो अपनी ही मनः स्थिति कि जांच - पड़ताल करनी होगी.यदि हमारा मन इसलिए विचलित है कि हम किसी व्यक्ति से बेहतर सिद्ध होने कि उत्तेजना से भरे है या इसलिए कि कोई घटना - स्थिति हमारी मनचाही नहीं है तो निश्चित रूप से हमें अपने विचारों को सँभालने कि जरुरत है. यही है दूसरों अपनी कमियों का प्रतिबिम्ब देखना. यदि हम किसी व्यक्ति, घटना या स्थिति को निरपेक्ष भाव से देखते है और अनुचित पाते है तो हमारी कम ठीक मनः स्थिति जायज है.
इस तरह हम सभी अपने विचारों से एक दूसरे को प्रभावित करते भी है और होते भी है. कई बार किसी व्यक्ति कि उपस्थिति मात्र से हम अपने आपको ज्यादा शांत और स्थिर महसूस करने लगते है जबकि कुछ लोगो का साथ हमें नकारात्मकता से भर देता है और हम ऐसा व्यवहार करने लगते है जैसी वे हमसे अपेक्षा रखते है. यह उन लोगो से प्रवाहित होने वाली ऊर्जा है जो हमें शांत और अशांत कर देती है और इसीलिए सत्संग का महत्व है. सत्संग यानि सत का संग. श्रेष्ठ का संग. अपने आप को अच्छी सोच वाले लोगो के बीच रखना ही सत्संग है.
अच्छी सोच रखना और अच्छी सोच वाले लोगो के बीच रहना ही बेहतर जिन्दगी का मूलमंत्र है.
(रविवार, 22 अप्रैल को दैनिक नवज्योति में ' बेहतर जिन्दगी का मूलमंत्र - अच्छी सोच के लोगो का साथ' शीर्षक के साथ प्रकाशित)
आपका
राहुल..