जीवन - संगीत
इस सप्ताहांत तक में तय नहीं कर पाया था की मैं आपसे किस विषय पर बात करूँगा. हर बार तो जो कुछ पढ़ा, समझा, जाना होता है उसमे से ही कोई विषय जो दिल को छूने वाला और मन को उद्वेलित करने वाला होता है के बारे मैं सोचकर, मननकर और कुछ इधर-उधर से जानकारियां इकट्ठी कर आपसे रूबरू हो जाता हूँ. इससे मुझे लगने लगा था की मेरा नया पढ़ना और जानना छुट रहा है और तब सोचा की कुछ नया पढना शुरू करूँगा और उसी में से कुछ निकालूँगा.
मैंने एक किताब शुरू की लेकिन मेरा सारा ध्यान विषय-चुनाव पर लगा था और मैं न तो पढ़ाने का रस ले पा रहा था और न ही लिखे को अपनी सोच का हिस्सा बना पा रहा था. मैं आदतन धीरे पढता हूँ पर इस बार दुगुना पढ़ गया. मुझे कोई बात अच्छी भी लगती तो सोचता आगे कुछ और ज्यादा अच्छा मिलेगा, और पूरा सप्ताह गुजर गया.
प्रकृति हमारे हर सवाल का जवाब देती है पर जरा अपने ढंग से. पढ़ते-पढ़ते मैं उस अध्याय पर पहुँच चुका था जिसका शीर्षक था ' Take it easy '. मैं ठिठका, होश आया, अपने आपको स्थिर किया तब दो बातें वापस समझ आई.
पहली, मंजिल पर पहुंचना उत्सव तब ही है जब यात्रा का आनंद आये. यात्रा मैं हर पग को महसूस किया हो, हर नज़ारे का लुफ्त उठाया हो तब ही मंजिल सुनहरी लगती है अन्यथा यदि यात्रा को हम सिर्फ काम मन लेंगे तो मंजिल बन जायेगी काम का निपटारा और खुशियाँ बनी रहेंगी मृग-मरीचिका.
दूसरी, संघर्ष हमारी नियति नहीं हमारा द्रष्टिकोण है. यदि हम मानते है की जो कुछ हम चाहते है वह बिना संघर्ष के मिल ही नहीं सकता तो विश्वास मानिए ऐसा ही होगा क्योंकि प्रकृति तो हर हाल में हमारा साथ निभाएगी. संघर्ष शब्द ही नकारात्मक है जिसे महसूस करें तो पाएंगे की उसमे कंही यह भावना छुपी है की ' हम जो कुछ पाना चाहते है उसके लायक नहीं है और इसलिए अतिरिक्त कठिन प्रयासों की जरुरत है.'
हमारे इस द्रष्टिकोण के लिए कुछ हद तक हमारे संस्कार (belief-system) जिम्मेदार है जहाँ हम बचपन से सुनते आये है, ' कुछ पाने के लिए कुछ खोना पड़ता है ' , ' संघर्ष ही जीवन है' , ' तप कर ही सोना निखरता है', ' जीवन एक दौड़ है.' आदि, आदि. हमारी यह सोच हमारी दृष्टी को धुंधला देती है, अंतस की आवाज़ हम तक नहीं पहुँच पाती, हम अच्छे - बुरे का भेद नहीं कर पाते और खुद ही अपने जीवन को संघर्षमय बना लेते है.
वास्तव मैं ऐसा नहीं है, हो ही नहीं सकता. प्रकृति तो बाहें फैलाए है, हर वो चीज देने को आतुर है जो हम पाना चाहते है. जरुरत है हमें अपना द्रष्टिकोण बदलने की. हमारा निश्चिन्त भाव हमें अपनी रचनात्मक ऊर्जा से जोड़ देता है जिससे हमारे कदम प्रभावी हो उठते है. रास्ते की थकान नहीं आती. यात्रा के हर क्षण का आनंद ले पाते है. मंजिल आसान लगने लगती है.
सच तो यह है की हम चाहते भी वहीँ है जो वास्तव में हमें पहले से मिला हुआ है और हमारा जीवन - उद्देश्य , हमारे प्रयास उसे पाने के लिए नहीं महसूस करने के लिए है.
जीवन - स्पर्श से उपजी इन्ही मधुर तरंगो के साथ अपनी बात को यहीं विराम देना चाहूँगा.
दिल से, आपका;
राहुल.....