गांधीजी ने नमक कानून तोडा, मार्टिन लूथर किंग (जू) ने रंगभेद नीती के कानून तोड़े, राजा राम मोहन राय ने सती प्रथा का विरोध किया, दलाई लामा चीन की तिब्बत पर प्रभुसत्ता स्वीकार नहीं करते और आन सां सू की बर्मा की सरकार को सरकार ही नहीं मानती तो क्या ये सारे लोग ईमानदार, निष्ठावान और सद्चरित्र नहीं है? सच तो यह है की इन लोगो ने नियमों की बजाय नैतिक मूल्यों पर अपना जीवन जीया और उदाहरण बन गए.
सच तो यह है की नियम-कानून बनाए ही इसलिए जाने चाहिए जिससे देश- समाज में नैतिक मूल्यों की रक्षा की जा सके बिलकुल उसी तरह जिस तरह परिवार में माता-पिता अपने बच्चों में अच्छे संस्कार के लिए घर में अनुशासन का वातावरण बनाते है.
वास्तव में व्यक्ति और सभ्यता के विकास के साथ- साथ नियम प्रथाएं भी अप्रासंगिक होने लगती है जिन्हें देश-समाज की बेहतरी के लिए बदल दिया जाना नितांत जरुरी हो जाता है. उदाहरण के तौर पर आपको याद दिला दूँ कि कुछ सालों पहले तक अमेरिका में गुलामों को रखना वैधानिक था और आज़ादी के बाद भी वहां महिलाओं को मतदान का अधिकार नहीं था.
लेकिन व्यावहारिक जिन्दगी में सामान्य व्यक्ति क्या करें?
न तो उसके लिए देश के कानून और समाज कि प्रथाओं को बदल सकना संभव है और न ही वो जीवन-भर किसी आन्दोलन का इंतज़ार कर सकता है.
उसे तो बस यह निश्चय भर करना है कि वो अपना जीवन नैतिक मूल्यों के आधार पर जीयेगा वैसे तो ऐसा करते हुए वह स्वतः ही नियमों कि पालना कर रहा होगा लेकिन फिर भी यदि कोई नियम उससे नैतिक मूल्यों कि अवहेलना करवाता है तो यह उसका नैतिक अधिकार है कि वह उन नियम प्रथाओं को न मानें. ऐसा करते हुए वह एक क्षण के लिए भी अपने मन में ग्लानि भाव न रखे क्योंकि वह तो ईमानदारी और सद्चरित्रता के ऊँचे मापदंडों को छू रहा होगा.
उसे इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना होगा कि वह अपनी मान्यताओं का अनावश्यक प्रचार न करें. ऐसा करने पर सामयिक व्यवस्था उसे दोषी ठहरा देगी एवं वह सजा या भर्त्सना पाकर अपने और अपने परिवार के लिए मुसीबतें खड़ी कर देगा. वह तो अपने आपको जितना हो सके उस परिद्रश्य से परे हटा लें और यदि एक हद से ज्यादा यह संभव नहीं है तो उचित सामंजस्य बिठा लें. सिर्फ सामंजस्य,समझौता नहीं. वहां भी वह अपनी निजता व मूल्यों कि रक्षा करें. यदि वह ऐसा करता है तो प्रकृति अपने आप उसको ऐसे अवसर देगी जिससे वह अपने जीवन के परिद्रश्य को बदल सके; जहाँ उसके लिए नैतिक मूल्यों पर चलना न केवल आसान हो बल्कि जहाँ इसके लिए उसे उचित प्रशंसा और पुरस्कार मिले.
आइए हम सब मिलकर मूल्यों पर आधारित समाज कि रचना में अपना हाथ बटाएँ;
आपका,
राहुल.....