त्योहारों के दिन बीते! सफाई, रँगोली, मिठाइयाँ, मिलना-जुलना और न जाने क्या-क्या। कल से फिर जिन्दगी ढर्रे पर आने वाली है। कहीं न कहीं इतने दिनों के बाद उसकी भी चाह होने लगी है जो अन्यथा हमें बोर करने लगती है। शायद भाग-दौड़, उत्सव और मनाना इनकी भी एक सीमा होती है। और फिर दो दिनों से मन में न जाने कितने काम, कितनी योजनाएँ घूम रही है। लगता है, एक बार शुरू हो तो मैं लगूँ। इनमें से अधिकतर कोई नई नहीं, न जाने कितने दिनों से उन्हें करने की सोच रहा हूँ लेकिन अब लगता है बस काम शुरू हो तो मैं बिना समय गवाएँ उन सब पर काम करना शुरू कर दूँगा।
ये जो हो रहा है, यही वजह है त्योहारों की और यही उनकी उपयोगिता भी। त्योहार एक अन्तराल देते है जो मन की मरम्मत के काम आता है और उनसे जुड़े प्रसंग हमारी आस्थाओं को पुनर्स्थापित कर जाते हैं। झूठ, कपट और बेईमानी के बीच कहीं न कहीं हम अनजाने ही मानने लग जाते हैं कि यही एकमात्र रास्ता है और इस बीच कोई त्योहार आ जाता है जो कह जाता है कि अन्ततः जीत अच्छाई ही की होती है या कोई बहन असुरक्षित नहीं या फिर यही कि गम न कर जिन्दगी रंगों से भरी है।
त्योहार के बाद की ये तरो-ताजगी सिद्ध करती है अवकाश की उपयोगिता को।
और यही वो कड़ी थी जहाँ से मुझे नया सूत्र मिला और वो ये कि हमारे किसी भी नियम से अवकाश की चाह गलत नहीं बल्कि जरुरी और स्वाभाविक है।
हम सब ने अपनी दिनचर्या में न जाने कितने नियम पाल रखें हैं और वे हैं भी जरुरी पर उतनी ही जरुरी है कभी-कभार उनसे छुट्टी। इस छुट्टी को मनाने के बाद आप वैसा ही फर्क महसूस करेंगे जैसा आप आँखें मूँद के चलने और रास्ते का आनन्द लेते हुए चलने में करते हैं।
यहाँ तक कि ये सूत्र हमारे आध्यात्मिक और धार्मिक आदतों पर भी ज्यों का त्यों लागू होता है जैसे ये हमारे काम और दूसरी आदतों पर लागू होता है। सीधे शब्दों में कहूँ तो यदि ध्यान, पूजा या पाठ जैसे कोई भी आदत अब आँखे मूँद कर होने लगी है, उनमें कोई रस नहीं रहा। अब वे आपको पहले की तरह सकारात्मकता से भर नहीं रहीं तो संकेत समझिए। वे अच्छी हुईं तो क्या, वे भी अपनी मरम्मत, नवीनीकरण के लिए विराम चाहती हैं। ठीक वैसे ही जैसे त्योहारों के ये दिन बीते। ऐसा करना उनका ही भाग है, उन्हें ही सार्थक करेगा। और फिर जब आप लौटेंगे पुनः इन पर तो आपका ध्यान, आपकी पूजा और आपका पाठ आपके लिए काम कर रहे होंगे।
तो जो मैं समझा वो ये कि जिस तरह काम का जीवन में महत्त्व है उतना ही अवकाश का भी क्योंकि ये अवकाश ही है तो काम को भोंतरा होने से बचाते हैं, उन पर धार लगाते है। जीवन को नई ताजगी से भर देते हैं।
दैनिक नवज्योति, 11 नवम्बर 2018
मासिक स्तम्भ - 'जो मैं समझा'