आज ही तो मिला था उसे खिलौना, और उसने पूरा खोल दिया था उसे। अब लगा था अस्थि-पंजर जोड़ने। ऐसा वो ही नहीं सारे बच्चे ही करते हैं। वे अचम्भित होते हैं उसे बजता, कूदता, नाचता देख और फिर रह नहीं पाते कि ये होता कैसे हैं? नतीजा, तितर-बितर हो जाता है वो बेचारा। बहुत कम ही बार होता है कि वो वापस से जुड़ पाता है, लेकिन जब कभी ऐसा हो पाता है एक अजब सी पुलक उनके चेहरे पर होती है, जैसे कलिंग विजय कर ली हो।
धीरे-धीरे ये छोटी-छोटी विजयें हमारे सीने पर होशियार होने का तमगा लगा देती है और इसके साथ ही हम बड़े होते जाते हैं। ये भूल जाते हैं कि ये सब तब की बातें थीं, हमारा कौतूहल था, इसका मूलतः हार-जीत से कोई लेना-देना नहीं था। वो तो बस सहज परिणाम थी, पर बड़े होकर हम सहज कहाँ रह जाते हैं। कौतूहल अहं में तब्दील हो चुका होता है। अब तो, हमें रोज जीतना होता है, ये हमें सन्तुष्टि का अहसास देता है, हमारे होने को स्वीकृति देता है लेकिन इसके लिए जरुरी है कि कुछ बिखरा हो। तब ही तो हम जोड़ पायेंगे, जीत पायेंगे और और जब ऐसा नहीं होता तब बच्चों की ही तरह बिखेरने-फैलाने लगते हैं। इस बात का मुझे अहसास उस दिन हुआ जब बिना वजह मैं अपने चारों और अपनों के बारे में सोचने लगा था। मुझे तो नहीं लगता, पर उनकी नजर में वे समस्याओं से घिरे थे। बिल्कुल वैसे ही जैसे, 'जवानों चारों और से दुश्मन ने हमें घेर रखा है, गोली जिधर चलाओगे दुश्मन ही मरेगा।' वे गोलियाँ चलाने में लगे हैं लेकिन छलनी भी खुद ही हो रहे हैं, क्योंकि दुश्मन तो असल में कहीं है नहीं और लड़ने में जो जान निकल रही है सो अलग।
ऐसा नहीं, कुछ बातें, कुछ परिस्थितियाँ होती हैं जिन्हें किसी भी हालत में हमारी जिन्दगी में नहीं होना चाहिए, और इन्हीं से अनवरत युद्ध असल जीवन है लेकिन वे बहुत थोड़ी, बहुत गहरी होती हैं। रही बात रोजमर्रा की तो ऐसे लगता है जैसे हमें समस्याओं से प्रेम है। हम चाहते हैं उनका हमारी जिन्दगी में होना। ये मौका देती है हमें उन्हें हल करने का जो हमारे अहं को सन्तुष्ट करता है। नहीं मिलती है तो हम ढूँढने लगते है, और ढूँढते हैं तो किसी कोने में कोई छोटी सी दुबकी मिल भी जाती है और ऐसा भी नहीं हो पाता, तो सोच-सोच कर पैदा कर लेते हैं। फिर हमें अच्छा लगता है, हम थकते हैं, तनाव से भरते हैं पर जीतने की इच्छा बरकरार रहती है।
तो जो मैं समझा वो ये कि
जिन्दगी को उसकी अपूर्णता के साथ ही स्वीकार करना होगा। कुछ भी 'परफेक्ट' नहीं, और यही सौन्दर्य है, फिर हम क्यूँ लगे हैं अपनी जिन्दगी को 'परफेक्ट' बनाने में। जिन्दगी सहज, सरल है और इसका आनन्द लेना है तो वैसा ही बन कर लिया जा सकता है। उसकी यही 'रिदम' है। हम बहुत कुछ कर सकते हैं, पर योजनाएँ जिन्दगी की होंगी। उन्हें होने देना और सफल बनाना ही पुरुषार्थ है।
सब कुछ हल नहीं करना होता और हर अनचाही स्थिति समस्या नहीं होती।
हमारी योग्यता अहं बन जीवन के आनन्द को कम न करने पाए।