Thursday, 15 September 2016

सहज ही सही






बात ही कुछ ऐसी थी, मैंने अपने मित्र के साथ कोई काम शुरू किया था और आज बातचीत आपसी लेन-देन पर होनी थी। एक जगह आकर उसने कहा, देख लेना यार, इसे और सोचना 'स्ट्रेस' पैदा कर रहा है इसलिए मैं आगे नहीं सोच रहा। बात यहीं खत्म हो गई और हमने एक-दूसरे से विदा भी ले ली पर मैं मन ही मन अभी भी उसे देख रहा था, सुन रहा था। बहुत कम बार होता है जब मैं किसी को अपने सहज होने को लेकर इतना सजग, इतना गम्भीर पाता हूँ। हम तो ये ख्याल ही नहीं रख पाते कि निर्णय न लेना भी एक विकल्प होता है। इसके लिए हम नहीं वो घुट्टी दोषी होती है जिससे हम समझ आने के पहले दिन से सीख जाते हैं कि जीवन में अवसर बार-बार नहीं आते, पर कभी न कभी आते जरूर हैं इसलिए सफल होना हो तो हर क्षण ताक में रहना चाहिए और जैसे ही आये उन्हें झपट लेना चाहिए। 
हम इसे यूँ कभी देख ही नहीं पाते कि जिन्दगी का तो हर क्षण दो राहा होता है,- ये करें या वो, और हर बार हम उसमें से एक को चुनते हैं। यानि जिन्दगी का हर क्षण एक अवसर है, सहजता और तनाव में से किसी एक को चुनने का। 
क्योंकि आखिरकार ये जिन्दगी है, कोई चूहे-बिल्ली का खेल नहीं। 

हमारी संवेदनाएँ मन से आए संकेत होती हैं यानि तनाव होना ही नकारात्मक संकेत है, इस बात का कि या तो आप सही दिशा में नहीं या अभी सही समय नहीं और ऐसी स्थिति में कुछ तय नहीं करना ही ज्यादा ठीक। तो बेहतर है, यदि रिश्ते विश्वास के हों तो अगले पर छोड़ दें नहीं तो प्रकृति पर। प्रकृति के पास अनगिनत तरीके हैं सही समय पर आपको सही जवाब देने के। वैसे भी, हर बात के होने का एक समय होता है, वो न तो उसके पहले होनी चाहिए और न ही उसके बाद, ठीक एक बच्चे के जन्म की तरह। कई बार हम जरूर अपनी इच्छाओं के चलते कुछ जल्दबाजी मचाने लगते हैं, पर ऐसे करने से होता कुछ नहीं अलबत्ता बात बिगड़ती ही है। आप क्या आप से बात करते-करते, मैं भी सोचने लगा हूँ कि जिन्दगी हमेशा इतनी आसान तो नहीं होती कि आप इतना सीधा-सीधा सोच पाओ। कई मौके ऐसे होते हैं जब हमें कुछ न कुछ निर्णय लेने ही होते हैं, उनका समय आ चुका होता है चाहे वे कितने ही तनाव भरे क्यूँ न हों। पर जब बहुत सोचा तो पाया, सच में वे निर्णय तनाव भरे नहीं होते। हमें हर बार मालूम होता है कि हमें करना क्या चाहिए। हाँ, कई बार हमें करना वो होता है जो हम करना नहीं चाहते। उन निर्णयों के परिणाम हमें पसन्द नहीं होते और तब हम हर सम्भव कोशिश में जुटे होते हैं कि वे किसी तरह टल जाएँ। पर ऐसा हो नहीं पाता क्योंकि जीवन प्रकृति से बँधा है और प्रकृति नियमों से। 

तो जो मैं समझा, 
वो ये कि यदि आप सहज हैं तो सही हैं, और यदि ऐसा नहीं तो कहीं न कहीं गड़बड़ तो है। 
ऐसा है तो रुकिए, टटोलिये और तब आगे बढिए, यही एकमात्र रास्ता है।  
और ऐसे निर्णय जिन्हें लेना तनाव से भरता हो, उन्हें लेने में उनके परिणामों की बजाय अपनी सहजता को प्राथमिकता दें। यदि ऐसा किया तो धीरे-धीरे ही सही हम उस दिशा में बढ़ते चले जाएँगे जहाँ से परिणाम हमारे पक्ष में आने शुरू होंगे, और यही तो हम चाहते हैं। 

Thursday, 1 September 2016

मन की आजादी









'तन तो आज स्वतंत्र हमारा, लेकिन मन आज़ाद नहीं है', नीरज जी की ये मार्मिक कविता कितनी माफिक बैठती है हम पर। कितने आगे आ गए हम इन सत्तर वर्षों में, पर मन जैसे दिन-ब-दिन गुलाम होता जा रहा है। जैसे सुबह से शाम तक हम को कोई हाँक रहा हो। सुबह उठने के बाद हम तय नहीं करते हैं कि हम क्या करेंगे और क्या नहीं, ये तो पहले से ही तय होता है। एक लम्बी-चौड़ी फेहरिस्त तैयार होती है जिसकी हर बात या तो 'पड़ेगा' पर खत्म होती है या 'चाहिए' पर, शायद ही कभी इनकी जगह 'चाहता हूँ' आता हो। 


मजे की बात तो ये कि कोई हमें टोके इसके पहले हमारे पास इसके जवाब मौजूद होते है, जिनका घुमा-फिरा कर मतलब 'सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट' के इर्द-गिर्द होता है यानि अच्छे से जीवन गुजारना है, बने रहना है तो ये सब तो करना ही होगा। मतलब गुलामी तो है ही हमने उसे स्वीकार भी कर लिया है। तन की गुलामी जैसे ईस्ट इंडिया कंपनी के भेष में आयी थी मन की ये गुलामी सफलता के भेष में आती है और तनाव की जंजीरों से हमें जकड़ लेती हैं। सफल होना है तो खूब काम करना होगा और काम अगर इतना होगा तो जिन्दगी में तनाव तो होगा ही, इस बात पर हमें यकीं ही नहीं है गाहे-बगाहे हम अपने से छोटों को तर्कों-वितर्कों से इस पर यकीं करवाते हुए मिल भी जाएँगे। 

क्या सचमुच ऐसा होगा? क्या मन का गुलाम रहना सफल जिन्दगी की कीमत है? ऐसा कैसे हो सकता है? ऐसा तो नहीं हो सकता, फिर गड़बड़ कहाँ हैं? ये 'पड़ेगा' और 'चाहिए' ही शायद सबसे बड़ी झंझट है। यदि बिल्कुल नहीं तो कम से कम ऐसा हो कि फलाँ काम करना ही पड़ेगा या फलाँ काम मुझे करना ही चाहिए, तब हमारा मन सचमुच मुक्त होगा। दूसरे शब्दों में कहें तो, जब काम पर हमारा नियन्त्रण और उसे करने, न करने की स्वतन्त्रता होगी तब ही हमारा मन भी आजाद होगा।  
पर ये कैसे होगा?

तो जो मैं समझा, वो ये कि सबसे पहले तो हमें कुछ जगह खाली करनी होगी यानि कुछ काम या जिम्मेदारियाँ जो अनावश्यक हमने ओढ़  लीं हैं उससे मुक्ति पानी होगी। न जाने कितने ऐसे काम हम रोजाना नियम से करते चले जाते हैं जिनके बारे में एक मिनट भी रुककर देखें भी, तो हमें अहसास हो जाएगा कि उन्हें करने की अब कोई आवश्यकता ही नहीं रही। इसके बाद बचे कामों का नियोजन यानि प्लानिंग करनी होगी। ये प्लानिंग समय के दबाव से मुक्त करेगी। ये समय का दबाव ही तो है जो हमें दौड़ता है और फिर वहीं से तनाव का बनना शुरू होता है। अब रही बात काम को करने या न करने की स्वतन्त्रता की, तो इसके लिए हमें थोड़ा अध्यात्म की तरफ मुड़ना होगा। कहीं अपने काम से होने वाले लाभ से हमें मोह तो नहीं हो गया है? हर क्षण ये चिन्ता कि, कहीं मुझे नहीं मिला तो? इसका मतलब यह भी नहीं की हमें अपने काम से मिलने वाले परिणामों की उत्सुकता या इच्छा न हो, बस इतना ही कि ये उसके चुनने की वजह न हो। ये इच्छा-उत्सुकता बढ़ कर मोह में तब्दील हो हमारा सुख-चैन न छिन लें। 
यदि ये हम कर पाए, समझ पाए तो मैं समझता हूँ, उस दिन हमारा तन ही नहीं मन भी आजाद होगा।