Saturday, 19 July 2014

संस्कारों का बदलता दायरा






करीब दो महीने पहले की यह घटना होगी जब स्कूली बच्चों को ले जा रहे एक कोरियाई ज़हाज के डूबने की खबर आयी थी। ये बच्चे स्कूल की और से पास ही के एक टापू के लिए विनोद-यात्रा पर निकले थे। अचानक, न जाने क्या गड़बड़ी हुई कि ज़हाज में पानी भरने लगा। कुछ ही समय में यह जहाज डूब गया और इसमें क़रीब 300 बच्चों की जानें गई। तीन सौ बच्चे ......................... इसे बयाँ नहीं किया जा सकता। 

कुछ ही दिनों बाद बच्चों के मोबाइल में लिए उन दुख़द क्षणों के विडियोज़ सोशल मीडिया पर वायरल होने लगे। इनमें जो कुछ भी था वो संस्कारों को पुनर्भाषित करने की माँग करता लग रहा था। मैं आपको बता दूँ, कोरियाई समाज पर कन्फ़यूशियस की शिक्षाओं का गहरा प्रभाव है। समाज का ताना-बाना उनके सिखाए मूल्यों से बुना है। जब जहाज में गड़बड़ी होना शुरू हुई तब उद्घोषणा हूई कि सभी यात्री लाइफ जैकेट पहन लें और अपने-अपने स्थानों पर बने रहें। अफरा-तफरी मचने से मुश्किलें बढ सकती है और हमारी अगली उद्घोषणा का इंतज़ार करे। विडियोज में साफ़ दिख रहा था कि बच्चे पहले अपने मित्रों को लाइफ जैकेट पकड़ा रहे थे, उसे पहनने में उनकी मदद कर रहे थे और फिर मुस्तैद हो, अगली घोषणा का इंतज़ार करने लगे। 

और 'बड़े', चाहे वे चालक दल के सदस्य हों, स्कुल के वरिष्ठ अध्यापक या अन्य सहयात्री; उन्होंने क्या किया? जहाज में पानी भरना शुरू होने के कुछ ही मिनटों बाद सब भूल-भालकर अपनी-अपनी जान बचाने की जुगाड़ में जुट गए। वे दूसरी उद्घोषणा करना ही भूल गए और बच्चे इंतज़ार ही करते रह गए। बच्चे तब भी बने रहे अपने-अपने केबिन में, लाइफ जैकेट पहने हुए। उनकी मूल्यों में आस्था इतनी अटूट थी कि वे सोच ही नहीं पाए कि ऐसा भी हो सकता है। जीवन के प्रश्न के समय भी व मूल्यों को, संस्कारों को निभाते रहे और नतीज़ा हुआ -- बहुत बुरा, लोमहर्षक। 

इस घटना ने दिल को दुःख से तो भर ही दिया पर साथ ही यह प्रश्न भी खडा कर दिया कि क्या आज के बदलते सामाजिक परिदृश्य में संस्कारो को भी पुर्नसंतुलित और पुर्नपरिभाषित करने की जरुरत नहीं है? जब मानवीय रिश्तों और सम्बन्धों का स्वरुप इतना बदल गया हो तब संस्कार भी वैसी ही अनुरूपता क्यों न लें? 'बड़ों का कहना मानना चाहिए' - ये बात हमेशा ही खरी रहेगी लेकिन समय के साथ कौन 'बड़े' इस दायरे में शेष रह गए है और कौन बाहर निकल गए हैं,- यह विवेक तो हमें अपने बच्चों को देना ही होगा। बच्चों को शिष्ट और अनुशासित बनाना एक बात हैं ओर उन्हें समय से पीछे रखना दूसरी बात। जीवन के अधिकांश भाग का व्यवसायीकरण एक वीभत्स सच्चाई है और इस वीभत्सतता से अपने बच्चों को दूर रखना हमारा प्रेम लेकिन क्या हम ऐसा कर बहुत बड़ी जोखिम नहीं उठा रहे हैं? इस घटना से तो ऐसा ही लगता है। 

अपने चारों ओर भी नज़र घूमाकर देखें तो भी कुछ-कुछ ऐसा ही नज़र आता है। इन बच्चों को अधिकांशतः वे ही नुकसान पहुँचा रहे हैं जिन्हें ये बहुत आदर और सम्मान की दृष्टि से देखते हैं। निश्चित ही, संस्कार हमेशा ही अनुकरणीय रहेंगे लेकिन इन्हें बदलते दायरों के सन्दर्भों में समझना और तब उन्हें भावी पीढ़ी को सौंपना होगा। आप कह सकते हैं कि इस तरह बच्चों की मासूमियत छीनने की बजाए हमें समाज में अंधाधुंध बढते व्यवसायीकरण को रोकने की कोशिश करनी चाहिए। शायद आप ठीक कहते हैं। हमें ऐसा ही करना चाहिए था लेकिन आज जो समाज का चित्र है वो इतना बिगड़ चूका हैं कि उसे रातों-रात ठीक कर पाना भी तो सम्भव नहीं। निश्चित ही हमें इस ओर भी काम शुरु कर देना चाहिए। इस व्यवसायीकरण ने हमारे जीवन का रस-सुगन्ध छीन लिया है जिसे लौटाना एक लम्बी प्रक्रिया है लेकिन तब तक हम अपने बच्चों को बीहड़ में अकेला तो नहीं छोङ सकते? आप ही बताइए, क्या कोई संस्कार, शिक्षा, मूल्य या धर्म अपने मूल स्वरुप में रह पाएगा यदि वह जीवन को अधिक सुन्दर न बनाता हो? यदि उसमें सत्यम्-शिवम्-सुन्दरम् की आत्मा न हो? 


(दैनिक नवज्योति में 13 जुलाई को 'सेकंड सन्डे' कॉलम में प्रकाशित)
राहुल हेमराज ........