कृष्ण अवतरण की कथा तो आपने खूब सुनी है, मैं जन्माष्टमी की ढेरों बधाईयों के साथ आपसे उस अनमोल भेंट की बात करना चाहता हूँ जो गुरु कृष्ण ने हम सब को दी। जिसने पूरे अध्यात्म का ही रुख मोड़ दिया। इससे पहले कर्म और अध्यात्म जीवन के दो अलग-अलग रास्ते हुआ करते थे और कर्म का मार्ग कहीं निम्न था। कर्मशील व्यक्ति यानि दुनियादारी के जंजाल में फंसा ऐसा व्यक्ति जो अपने कर्म-बंधन बाँधते ही चला जा रहा है और जिसकी मुक्ति संभव ही नहीं। उन्होंने 'अनासक्त कर्म' का सूत्रपात कर न केवल उसका योग अध्यात्म से कर दिया अपितु एक साधारण गृहस्थ के लिए परमात्मा के द्वार भी खोल दिए। निस्संदेह अनासक्त कर्म ही गुरु कृष्ण की सारे जगत को अमूल्य भेंट है।
साधारणतः जो जुमला प्रचलित है वह यह कि गीता कहती है, कर्म करो लेकिन फल की इच्छा मत करो। शायद इसीलिए कि ये सुनने में बड़ा चुनौतीपूर्ण लगता है जो हमारी बुद्धि की कमजोरी है, उसकी पसंदीदा खुराक है। जहाँ तक गीता को मैं समझ पाया, गीता में कृष्ण कहते है, 'कर्म करो और उसके परिणाम निस्संदेह तुम्हारे कर्म की प्रेरक शक्ति बनें लेकिन उन परिणामों से तुम्हारी आसक्ति न हो। यहाँ इच्छा और आसक्ति में फर्क को समझने की जरुरत है। इच्छा प्रेरक शक्ति है और आसक्ति हवस। जब कुछ पाने की लालसा आपकी समझ से अच्छे-बुरे का भेद मिटा दे और आपको उसे पाने के लिए गलत रास्ते भी जायज जान पड़े, वही आसक्ति है। आपका प्राप्य आपके जीवन का पर्याय बन जाए। ऐसे कर्म निश्चित ही कर्म-बंधन का कारण होंगे। आसक्त कर्म, एक ऐसा दलदल है जिससे हम जितना निकलने की कोशिश करते है उतने ही फँसते चले जाते है।
हमारे कर्म क्रिया है तो कर्म-फल प्रकृति की प्रतिक्रिया। हम जो कुछ करते है उसका परिणाम प्रकृति के शाश्वत नियमों के अनुसार पाते है अतः कोई औचित्य नहीं बनता कि हम कर्म-फल को नियंत्रित करने की कोशिश करें। यही आशय है कृष्ण के उस कथन का कि तू अपने सारे कर्मों को मुझे समर्पित कर। ऐसा कह वे भरोसा दिलाना चाहते है कि यदि हम अच्छा करते है तो निश्चिन्त रहें, हमारे साथ अच्छा ही होगा। यही अनासक्त कर्म है।
स्वामी विवेकानन्द ने अनासक्त कर्म को जीवन में अपनाने का एक बहुत ही सरल-सुगम मार्ग सुझाया है। 'हम किसी से कोई उम्मीद न करें। उम्मीद ही आसक्ति का व्यावहारिक रूप है।' मैं समझता हूँ अनासक्त कर्म को अपना स्वभाव बना पाने की शुरुआत हम आपसी रिश्तों में उम्मीदों को कम और धीरे-धीरे उन्हें शून्य कर, कर सकते है। हम किसी के लिए कुछ करें तो सिर्फ इसलिए कि ऐसा करना हमें अच्छा लगता है, हमारे मन को सुकून देता है। हमारा व्यवहार हमारा स्वभाव हो, निवेश नहीं। हमारा अच्छा व्यवहार इस कारण हो कि प्रत्युत्तर में जैसा हम चाहते है वैसा व्यवहार मिलेगा तो तय मानिए वो रिश्ता लम्बे समय तक मधुर नहीं रह सकता। हम सब का अपना-अपना स्वभाव है और वैसा ही आचरण। एक दूसरे को जीने की जगह देकर हम जीवन में अनासक्त कर्म का व्यावहारिक पक्ष समझ सकते है।
उलटबाँसी यह है कि कर्म फल की आसक्ति से मुक्त होकर हमारे कर्म सघन हो जाते है। जब हम परिणामों की चिंता किए बगैर कुछ करते है तब हम अपना शत-प्रतिशत दे पाते है और तब हमारे परिणाम स्वतः ही सर्वोत्तम होते है। अनासक्त कर्म स्वतन्त्र जीवन और बेहतर परिणामों का मार्ग है अतः उमीदों से निजात पाने से श्रेष्ठ श्री कृष्ण को हमारी गुरु दक्षिणा हो ही नहीं सकती।
(दैनिक नवज्योति में रविवार, 25 अगस्त को प्रकाशित)
आपका
राहुल ........